Saturday, May 21, 2011

" केवट की प्रतीक्षा"

आज फिर बैठा है गंगाजी के किनारे,
वो केवट, भरकर जल पात्र में अपने,
और राह पर नज़रें बिछाकर एकटक ,
प्रतीक्षा कर रहा है अपने प्रभु राम की ,
जो आज अभी तक नहीं आये तट पर,
कब धोएगा वो केवट, उनके चरण कमल,
और कब ग्रहण करेगा, वो चरणामृत, कब,
कब मुक्त होगा वो इस जन्म पुनर्जन्म के,
अंतहीन चक्र से, ब्रह्म विलीन होने के बाद,
वो स्वरुप,सांवला सलोना,दिव्य अलौकिक,
उसके प्रभु राम का, जो बना देगा फिर ,
उसके जीवन को भँव-सागर से कर पार,
अमृत्व से परिपूर्ण और वायु से हल्का,
जिनके दर्शन से उसने उस त्रेता युग में,
मुक्ति पायी थी, जन्म मरण के खेल से,
फिर ना जाने क्यों ? पुनः श्रापित होकर,
वो केवट, फिर आ पहुंचा, उसी गंगा तीरे ,
अपने हाथो में पात्र में भरा जल लेकर,
मुक्ति की वो गति को प्राप्त करने की आस,
उसे पल पल कर रही है व्याकुलता से युक्त,
और तन की थकान अब नेत्रों में दीखती है,
पर आज वो ऐसे ही खड़ा रहकर, ताकेगा,
उस क्षितिज की और, जहाँ से आयेंगे, वो,
उसके प्रभु राम, किसी व्योम पर सवार हो,
और मुक्ति होने का वरदान देंगे, उसे पुनः,
चरण-कमल धोकर उनके, वो केवट पुनः,
ग्रहण करेगा, चरणामृत और चरण धुरि,
आज सम्पूर्ण विश्व, भी तक रहा है राह,
अपने इष्ट देव की, जो मुक्तिप्रद करेंगे, हमें
यहाँ फैले भ्रष्टाचार, अत्याचार व् व्याभिचार से ......
=======मन-वकील

बेरोज़गारी

Oh MY God..Its Sheena Again to Contribute

राह चलते एक दिन मिल गई हमे बेरोज़गारी बहन
सामने आते ही उनसे मिले हमारे ये दो नयन

नयन मिले तो बात करनी ही पड़ी
हमने पूछा, कैसी हो बड़ी बी?

हमारी बातें सुनकर पहले तो वो शरमाई
थोडा सा इठलाते हुए फिर हमसे फरमाई

क्या बताये बेगम तुम्हें अब अपने दिल का हाल
फैल चूका है चारों तरफ मेरा ही माया जाल

गली गली में होने लगे अब तो मेरे ही चर्चे हैं
रोज ही देखो छपने लगे मेरे नाम के पर्चे हैं

साथ दे रही है आज की शिक्षा और सरकार
मिल रहा है दोनों से ही मुझे ढेर सा प्यार

बन गई हूँ अब तो मैं हर युवा के दिल की धड़कन
फिर भी छुड़ाना चाहते हैं सब मुझसे अपना दामन

कहे देती हूँ……..इतनी जल्दी मैं उनका साथ नहीं छोडूंगी
अभी-अभी तो पकड़ा है…………… ये हाथ नहीं छोडूंगी

इतनी जल्दी साथ नहीं छोडूंगी…….

राजनीति

Thanx Sheena for this wonderful poem on politics!!!

राजनीति के रंग निराले भैया
चलते हैं तीर और भाले भैया

बिन पेंदी के लोटा हैं सब
रोज ही बदले पाले भैया

फितरत की क्या बात करें हम
दिल के हैं सब काले भैया

सुबह शाम उड़ायें छप्पन भोग ये
जनता के लिए महँगी है दालें भैया

चुनाव भर घुमे ये घर-घर पैदल
कार में भी मंत्रीजी को आये छाले भैया

करते हैं सपरिवार विदेश में शॉपिंग
आमजन को है खाने के लाले भैया

संसद को बना दे ये आरोपों का अखाड़ा
विकास की बात पे जुबां पे लगे ताले भैया

रहती है इन्हें बस कुर्सी की ही चिंता
कुर्सी के लिए देश को भी बेच डाले भैया

बोफोर्स, चारा, टेलीकॉम, हवाला
इनके हैं बड़े-बड़े घोटाले भैया

राजनीति के रंग निराले भैया
दिल के हैं सब काले भैया

नन्ही सी कली

Again Sheena has contributed...Look at the lovely poem and look how she has contributed towards the cause

नन्ही सी एक कली हूँ मैं
कल मैं भी तो इक फूल बनूँगी
महका दूंगी दो घर आँगन
खिलकर जब मैं यूँ निखरुंगी
ना कुचलो अपने कदमों से
यूँ मुझको इक फल की चाहत में
फल कहाँ कभी बागबां का हुआ है
गिरता अक्सर गैरों की छत पे
उम्र की ढलती शाम में जब
ना होगा साथ कोई साया
याद आयेगा ये अंश तुम्हारा
जिसको तुमने खुद ही है बुझाया
क्या इन फलों से ही है माली
तेरी इस बगिया की पहचान
गुल भी तो बढ़ाते है खिलकर
तेरी इस गुलिस्तां की शान
बोलो फूल ही ना होंगे तो
तुम फल कहाँ से पाओगे
बेटी जो ना होगी किसी की
तो बहु कहाँ से लाओगे?
तो बहु कहाँ से लाओगे??????

वासना की गुड़िया

Once again its Sheena!!!

कम लगता है मुझको
वो आतंकवाद
जो बम के धमाकों से
ख़त्म कर देता है जिंदगी
एक ही बार में ।
नारी जीवन में तो पल पल
छाया रहता है आतंक
और घुटती है, मरती है
वो हर पल, हर रोज ।


पानठेलों की चुभती निगाहें
आँखों से टपकती वासना
भीड़ में टटोलते कुछ हाथ
जो अक्सर दिल को
छलनी कर देते हैं ।
और इससे भी जी नहीं भरता
तो करके शरीर का बलात्कार
छोड़ देते हैं जिन्दा
घुटकर मरने
उम्र भर के लिए ।


इन दरिंदों के लिए
बच्ची, युवती, प्रौढ़ में
कोई फर्क नहीं ।
उनके लिए तो हैं ये
सिर्फ और सिर्फ
वासना की गुड़िया ।


क्या कहते हो तुम
नारी स्वतंत्र हो गई ?
पर तुम्हीं बताओ
उन चुभती नजरों से
लालची आँखों से
मैले-कुचैले हाथों से
कब होगी आज़ाद ?

क्या नारी होना अपराध है ?
या सुन्दर नारी एक अपराधी ?

आई अब जनता की बारी

Sheena's 4th Contribution towards this Blog!!!

आई अब जनता की बारी*
अकड़ निकल गई उनकी सारी।
ऐसे विनम्र हो गए हैं वे,
जैसे पकड़ी गई हो चोरी।

माँगों पाँच वर्ष का हिसाब।
देना होगा उनको जवाब
जीतकर हो गए थे गुम,
अब सामने आए हैं जनाब।।

आया है मौका अब आपका।
काम देखो प्रत्याशियों का।
विवेक की तुला पर तोलो,
असली चेहरा जानो इनका।।

सोच-समझकर बटना दबाना।
गलती हुई तो पड़ेगा पछताना।
न आना तुम बहकावे में,
जो योग्य हो उसी को चुनना।।

चिकनी-चुपड़ी बातों पर
कीजिए मत विश्*वास।
अपने हित को साधने
ये बहुत जगाएँगे आस।
हम हैं जनता, ये हैं सेवक,
हम नहीं हैं इनके दास।
अपने सेवक को चुनने का
है अधिकार हमारे पास।।

व्यर्थ न जाए आपका
ये बेशकीमती वोट।
जहाँ चाहते आप हैं
वहीं लगाना चोट।।

मकसद हो जाए पूरा
लक्ष्य भी हो हासिल।
सोच-विचार कर दीजिए
अपना बहुमूल्य वोट।।

बेटा नमक हराम बाप को गरियाता है

The 3rd Poem by Sheena!!


बेटा नमक हराम बाप को गरियाता है,
नया जमाना देख समय भी शरमाता है।
कभी-कभी तो पटक-पटक कर सोटियाता है,
मां जब बीच-बचाव करे तो झोंटियाता है।
डांट पिलाती मेहरारू तब हिहियाता है,
कान पकड़ता मुर्गा बनता मिमियाता है।
बाहर बना शरीफ फुटानी बतियाता है,
बेटा नमक हराम बाप को गरियाता है।
बुड्ढा मट्ठा-दूध मांगते घबराता है,
गुजर किया क्यों मांड-भात से पछताता है।
दाँत नहीं सूखी रोटी को चुभलाता है,
भिखमंगों की भांति द्वार पर रिरियाता है।
क्या होगा भगवान कलेजा थर्राता है।
बेटा नमक हराम बाप को गरियाता है।

चाय खाना!!

Another wonder ful Poem contributed by Sheena!!!

गम को कम करने की शायद
मुफीद जगह है चाय खाना,
जहाँ लेन-देन के मामले तय होते हैं,
बनती चाय महज बहाना.
चाय की चुस्की लेकर अटका कार्य ,
पुन: सरकने लगता है.
सुस्त पड़ा फ़ाइल फिर एक बार ,
टेबुल पर टहलने लगता है.
नफरत,वियोग की कडवाहट और मिठास
जब आपस में घुल मिल जाते हैं,
चुस्की की मधुर ध्वनि सुन
हम खुद में खो जाते हैं.
चाय कभी फैशन जरूर थी,
बन गयी आज हमारी जरूरत,
हाकिम हो या फिर चपरासी,
हर किसी को है पीने की आदत.
मुंह अँधेरे,बिछावन पर ही
अब चाय परोसी जाती है,
पतिव्रता भी पति देवता को,

चाय से ही रिझाती है.
आधुनिकता की पहचान यही है,
घर-घर में यह मीठा जहर,
इसके बिना हम असभ्य कहलाते,
और जीना सचमुच है दूभर.

गूगल बाबा की जय हो!!!

This wonderful Poem is contributed by Sheena....

जय हो गूगल बाबा की जय हो
जो पूछो झट से बतलाते

खुद में पूरा ब्रमांड बसाते
डक्टर हो या इंजीनियर
सबको हैं यह राह दिखाते
सबसे ज्यादा युवा वर्ग को भाते
क्योंकि इनके बिषयों को
झट से ये जो हल कर जाते
जय हो गूगल बाबा की जय हो .
गूगल बाबा के रूप भी अन्नत
इनका जीमेल सबका चहेता
युवाओं में ऑरकुट का बोलता
ऑफिसर का ओनलाइन खाता
लेखक और कवि को ब्लॉग्स खूब भाता
फोटो एलबम के लिए है पिकासा
हिंदी को इंगलिश में लिखना
या हो कोई और भाषा
गूगल का है अपना
ये ट्रांसलेसन कहलाता
गूगल बाबा के हैं और भी कई रूप
कंप्यूटर नहीं हो मोबाइल में भी रहते
उलझन को क्षण में खत्म करते
घर बैठे अपने “अर्थ” से
दुनिया की ये सैर कराते
नई नई तकनीकों को
अपने पास हैं लाते
अब तो फ्री में गूगल बाबा
मोबाइल पर बात भी कराते
जय हो गूगल बाबा की जय हो........

Friday, May 20, 2011

सच

सच, जो नित मुझे डरा देता है,
कैसे बोल पाऊंगा में , इसे कभी,
यदि बोल दूंगा तो, निश्चित ही,
कुछ बंधू होंगे विमुख मुझसे,
और कुछ मित्र विचलित से,
कोई तो अधिकता की सीमा ,
लांगकर, उगल देगा एकाएक,
मेरे बारे में , अपना वो सच ,
जो उसने भी छुपाया होगा,
भीतर मन के अँधेरे कोने में,
बिलकुल मेरी तरह, जैसे में,
मन के उस अँधेरे कोने में रोज़,
झांकता तो हूँ, पर उसके कपाट,
बंद रखता भय से, कही कोई,
खोल ना दे मेरे भीतर की परते,
शायद तभी सच पड़ा रहता ,
वहां खामोश, चिंतन से युक्त हो,
कभी कभी निकल भी पड़ता ,
मेरे नेत्रों से अश्रु धरा के संग,
परन्तु फिर में यही कोशिश,
करता रहता, चेतन मन से,
कमबख्त छुपा ही रहे, यह,
सदैव, काहे को बहार आकर,
मित्रों से शत्रुता, रिश्तों में कटुता,
सभी अपने काहे जाने वालों से,
बैर मोल ले, जीवन को दूभर,
बनाने में कोई कसर न छोड़े,
अतः मैं इसे छुपाये रखता,
सदैव झूठ के कई मन बोझ से,
मुझे नहीं कहलाना, वीर महान,
इसके जिव्या पर आते ही, तो,
मैं समाज से बहिष्कृत होकर,
वीरगति को ही ना प्राप्त हो जाऊं,
समझौता कर लिया है मैंने, अब,
अपने उस मरे हुए आत्मबोध से,
जो कुछ भी हो जाए, मैं सदैव,
ढांपे रखूँगा, अपनी हकीकत को,
और मन-वकील सच नहीं बोलेगा ,
कभी भी और कहीं भी,किसी को नहीं......
======मन वकील

कौन है बड़ा!!!

आँखों में बस भूख थी उसके,
और तन में चिथड़ों के वसन,
दोनों हाथ फैलाएं सबके आगे,
सड़क के किनारे वो था यूँ खड़ा ,
मैं जो निकला उससे बचकर,
जब अपनी रहा था मैं टटोल,
एक सिक्के को मुठी में थामे,
मन में मेरे विचार यह आ पड़ा..
क्या दूं ? यह सिक्का इसके मैं,
या फिर इसे जब में ही रहने दूँ ,
फिर अचानक उसकी और देखा,
और वो मुझे देख कर यूँ हंस पड़ा,
मैं विचारों से आ गिरा अचानक,
इस चेतना की पथरीली धरती पर,
उसकी मुस्कान ने मुझसे जैसे पूछा,
बता, मैं भिखारी या तू ? कौन है बड़ा ?
========मन-वकील

Thursday, May 19, 2011

कर्मठ होने का अर्थ


अरे कर्मठ होने का अर्थ मन-वकील शायद अभी समझ न पाया...
सिर्फ मस्त-मौला बन के जिया, और मित्रों के सदा ही काम आया..
जिसने बोले दो बोल प्रेम से, उसी के दर पे बैठ इसने दिन बिताया..
लिखता रहा सिर्फ मन और दिल के बाते, जुबाँ पे कभी उफ़ न लाया..
हसरतें थी मन-वकील, उड़ने की आसमां पे, तो पैरों से जमीं फिसल गयी,
गिरते उठते सीखे सिर्फ दुनिया के कायदे,न जाने कैसे खुशियाँ निकल गयी,
आँखों में नमी आयी, पर कभी किसी खुदा के बन्दे पे न कोई इलज़ाम आया...
अरे जहाँ मिलता रहा इसे दोस्तों का प्यार, वहां इस जहाँ का ही नाम आया.. 


========Man-Vakil

Wednesday, May 18, 2011

हौंसला -इ-जिगर

तू मेरे जिगर से बहता लहू ना देख ,
तू मेरा हौंसला -इ-जिगर तो देख,
मेरी आँखों के खामोश नमी ना देख,
तू इनमे भरी वो आग तपिश को देख..
अरे तेरे ना मिलने पे, ख़ाक नहीं होंगे,
तू मेरे फनाह होने का सफ़र को देख,
अरे सितमगर मेरी रहमत को देख,
गर्दिशों में उड़ते मेरे बयारों को देख,
अरे हम है मन-वकील, मन की करे,
हाथों में नहीं तलवार , फिर भी अकेले,
आँधियों से लड़े,तूफानों से जाकर भिड़े,
गर तेरे दर पे ठहर दो पल किये जो आराम,
तुने न जाने क्यूँ समझ लिया हमें गुलाम,
अरे हसिनायों के पर तो हम , रोज़ बा रोज़,
कतरते है मेरी जान, ऐसे हमारे हुनर को देख,
नज़रों से गरूर के परदे हटा,फिर तू मेरी जान,
मेरे जाने के बाद तेरे इस आशियाँ का हश्र देख .
तू मेरे जिगर से बहता लहू ना देख ,
तू मेरा हौंसला -इ-जिगर तो देख,....
... मन-वकील

Tuesday, May 17, 2011

नेता जा रहे होटल ताज!!!!

हे भगवान् कब तुम धरती पर पधारोगे
इन सत्ता के मारों को कब मुक्ति दिलाओगे
सत्ता के मद में खोये हैं ये बन्दे,हो गए हैं अंधे सारे
घुस ,चोरी और लुट से हैं इनके बसेरो में उजियारे
बच्चे भूके हैं,मगर हैं नहीं इनको होश
होती है नफ्रात खुदसे जब देखता हूँ विदेशी धन कोष
भारत का है धन वहां सड रहा
मगर बच्चो के तन पर कपडा नहीं यहाँ
माएं पानी को हैं मोहताज, BPL कार्ड नहीं है आज
इन परेशानियों का शबाब कब समझेंगे ये सरताज
लगता है कभी कभी अन्धो का है यह राज
बच्चे भूक से बिलख रहे,और नेता जा रहे होटल ताज!!!!

========मन वकील

नाम है बदनाम !!!

Man-vakil ki kalam se ek aur sundar poem


नाम है बदनाम फिर भी तू मस्त रहे जा
दुनिया की फिकर से दूर तू अपने में चले चला जा
ना सोच के क्या दिया  है दुनिया ने तुझे
जो मिला है उसी से संतुस्ट हुए चला जा
दिल से है तू मासूम यह प्रमाण इन्हें दिखला जा
जो करते हैं तुझे बदनाम उन्हें प्रेम परिभाषा सिखा जा
त्याग दिया है तुने मोह माया को ये इन्हें समझा जा
नाम है बदनाम फिर भी तू मस्त रहे जा..

ना कभी मैं मूक रहा


कुछ तो गुण होंगे तुममे , जो तुम मुझको भातें हो...
और कुछ दोष दिखाकर मुख से, कभी तो डराते हो,,,,
मित्र हो या फिर सखा तुम, कभी प्रिये बन रुलाते हो...
जीवन के अकेले कोने में आकर कभी युहीं भरमाते हो...

 मन की वो आवाज़ वहीँ है, मित्रों,ना कभी मैं मूक रहा,
अवसादों से चाहे घिरा हुआ था, फिर भी मैं अचूक रहा...
यादों के वो गहरे साये, घिर घिर आते मन की बस्ती में,
कभी ख़ामोशी सी छा जाती, कभी ख़ुशी ठहरे हस्ती में,
चिंताओं के अवशेष रहें, कभी भावों से भरी, मैं भूख रहा
मन की वो आवाज़ वहीँ है, मित्रों,ना कभी मैं मूक रहा,

======मन-वकील

कह दे मुझको तुमसे प्यार नही

जनाजा रोककर वो मेरे से इस अन्दाज़ मे बोले, गली छोड्ने को कही थी हमने तुमने दुनियां छोड दी।

आशिक जलाए नही द्फनाय़े जाते हैं, कब्र खोद कर देखो इन्तज़ार करते पाय़ जाते हैं ।


आता नही हमको राहें वफा दामन बचाना, तुम्ही पर जान दे देगें एक दिन आज़मा लेना।


जो गिर गया उसे और क्यों गिराते हो, जलाकर आशियाना उसी की राख उडाते हो ।


गुज़री है रात आधी सब लोग सो रहे हैं, यहां हम अकेले वैठे तेरी याद मे रो रहे हैं ।


खुदा जाने मोहबत का क्या दस्तूर होता है, जिसे मै दिल से चाह्ती हूँ वही मुझ से दूर होता है।


गुज़रे है आज इश्क के उस मुकाम से, नफरत सी हो गयी है मोहबत के नाम से ।


जिस पेड के पत्ते होते है वही पत्ते सूखते है, जिस दिल मे मोहबत होती है वही दिल टूटते है ।


जब खामोशी होती है नज़र से काम होता है, ऐसे माहौल का शायद मोहबत नाम होता है।


तुम क्या मिले कि फैले हुए गम सिमट गये, सदियों के फासले थे जो लम्हो मे कट गये।


वो फूल जिस पर ज्यादा निखार होते हैं, किसी के दस्त हवस का शिकार होते हैं ।


पी लिया करते हैं जीने की तमना मे कभी, डगमगाना भी जरुरी है सम्भलने के लिये ।


मै जिस के हाथ मे एक फूल दे कर आया था, उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश मे है ।


आपको मुबारक हो इशरते ज़माने की, हमने पाई है दौलत दर्द के ज़माने की।


कब तक तू तरसेगी तरसाएगी मुझ को, एक बार कह दे मुझको तुमसे प्यार नही । 


This poem is written by Mr. Alone 

दुनिया में---मुसाफिर गुम गया

वो जब आया इस दुनिया में, बहुत शोर मचाता रहा,
शोर शोर करते करते, अपना आगमन बतलाता रहा,
माँ की गोद से, पिता के कंधे पर चढ़कर, हर रोज़,
अपने पाँव पर वो धीरे धीरे एकदिन चल निकला,
शुरू करने अपनी जीवन के सफ़र का , एक दूसरा ही दौर,
उसके पहले कदम धरा पर रखने से भी हुआ वैसा ही शोर,
उसके नन्हे नन्हे क़दमों की ताल भी, अब कुछ बदलने लगी,
तेजी आयी जुबान सी उसके क़दमों में, जिन्दगी मचलने लगी,
पहले अकेला रहा वो, अब हमकदम हमसफ़र मिलने लगे,
कुछ छूटे मोड़ पर ही , कुछ उसके साथ साथ चलने लगे,
नए विचारों से उसने नए जीवन को दिए उसने आयाम,
रुक न पाया वो कभी इस भागदौड़ में , करने को विश्राम,
अब उसके क़दमों की ताल के संग, कुछ कदम अपने से मिले,
जो अलग हो अपनी राह को निकले, कल तक जो साथ थे चले,
धीरे धीरे उसके क़दमों की भी गति , लगी कुछ अपने आप घटने,
वो अलग सा होने लगा उस राह से, लगा था कुछ वो भी थकने,
एकदिन ना जाने क्यों वो, एकाएक ही था उसका सफ़र थम गया,
चार कंधो पर चला वो अग्नि भस्म होने, वो मुसाफिर
गुम गया...
..............मन-वकील

जन्म-भूमि को गाली न दो

दो गाली सबको , लेकिन अपनी जन्म-भूमि को न दो,
अगर दोष होगा , तो हम भूमि भोग्तायों में ही शायद होगा,
अरे उस भारत भूमि में कहाँ दोष , जो पावन सरस भूमि है,
जिसमे जन्मे है देव, ऋषि और महानतम पुरुख निरालें ,
दो गाली सबको , लेकिन अपनी जन्म-भूमि को न दो,
अगर दोष होगा , तो हमारे बोये बीजों में ही शायद होगा,
अरे उस भारत भूमि में कहाँ दोष, जो कण कण उपजाऊ है,
जिसमे बसते है हर वर्ण गुण और आकार के वन और जीव,
दो गाली सबको , लेकिन अपनी जन्म-भूमि को न दो,
अगर दोष है, तो हमारे आज के नेता गण में ही शायद होगा,
अरे उस भारत भूमि में कहाँ दोष , जो निति सिद्धान्तकों भरी हुई है,
जहाँ प्रतिपादित हुए है गौतम, नानक, राम और चाणक्य के निति नियम,
अगर गुलाम आज हम है, तो दोषी स्वयं आज का जन-मानस है,
जो जकड गया है जाने अनजाने , विदेशी आडम्बरों के मकड़ी जाल में,
--------------मन-वकील

अभी अधूरी है जिन्दगी

युहीं सोचते सोचते ऐ दोस्त , कभी कभी कट जाती है यह जिन्दगी,
कभी काली घटा सी लगती, कभी खुले आसमान सी है यह जिन्दगी,
उजालों से निकल कभी कभी गहरे अंधेरों में उतर जाती है यह जिन्दगी,
कभी हाथों में होती लकीरों सी, और कभी फिसल सी जाती है यह जिन्दगी,
रोते रोते आंसुओं के संग बहकर, मेरी आँखों में उतर आती है यह जिन्दगी,
कभी महबूबा के गर्म बोसों सी, कभी अपनों के तानो सी चुभती है यह जिन्दगी,
कभी सुन कर महबूब की बेवफाई के अफ़साने, चट्टान सी बन जाती है यह जिन्दगी,
और कभी मिलन की आस में गाती है तराने, और मधुर संगीत से हो जाती है यह जिन्दगी...
---------------मन-वकील

अछूती....

वो मजबूर थी शायद , जो गिर गयी उस कर्महीन गर्त में,
पेट की क्षुधा ने ही धकेल दिया था उसे इस परिस्थिति में,
अपने बनकर जो हाथ उसे चाहे अनचाहे छूने की कोशिश करते,
आज वो हाथ उसे छुहन से कांपने लगते , ना जाने क्यों?
क्या वो हीनता थी जो वो देखने लगे थे उसमे एकाएक..,
या फिर उसके तन को छूने का मूल्य चुकाने का भय...
पर वो उन लोगो के लिए आज अछूत बन चुकी थी,
वही लोग जो कल तक उसे अछूता नहीं रहने देतें थे...

दुनिया के बदलते रंग

कुछ तो बात होगी तुझमे , जो सारी दुनिया सुधर गयी,
पर ना जाने क्यों ? सब सुधर गए, सिर्फ हम ना सुधरे,
असर था ये तुझे पाने का, या फिर तुम्हे पाकर
खो  देने का,
शायद तेरी हसरत में सुधर गए , वो सब काली फितरत वाले,
और हम युहीं बैठे रह गए, गम भी ना मना पाए तुझे खोने का कभी,
चंद आंसुओं से डूबे हुए पढते रहे, तेरे जिन्दगी से चले जाने पर फातिहा,
बस हम देखते रहे युहीं तेरे जाने पर , इस बेरंग दुनिया के बदलते रंगों को.........
-----------मन-वकील

दोस्त की याद में

चन्द बातें तो याद होंगी तुम्हे मेरी ,
कुछ पल भी समेटे होंगे आँखों में,
बिता हुआ कल अब होगा दामन में,
किसी गाँठ की तरह बंधा सा हुआ,
ख्वाब चाहे ना आते हो कभी मेरे,
पर तुम्हारे काले सायों में हूँ मैं,
बुरे अतीत की कालिमा संजोये,
आज भी डर जाती होगी अचानक,
तुम देख किसी राह पर चलते चलते,
ठिठक कर फेर लेती होगी अपना मुहं,
या फिर बदल देती होगी राह अपनी....
कुछ तो बात है तुममे ऐ मेरे दोस्त
जो मजबूर कर देती है हमें तेरे पास आने को,
वो बारीकियां सभी कुछ ब्याँ करने की तेरे,
वो आग से खेलते मुद्दे उठाना , यूँ अक्सर ,
वो कुछ अपनों की मदद करने का हौंसला,
कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ पे इसे ख़तम,
तेरी शख्सियत का कोई सानी भी तो नहीं.....
-----------मन-वकील ...

प्लास्टिक की बोतल

मैं हमेशा सा रहा हूँ उसके लिए,
एक प्लास्टिक की बोतल को तरह,
जिसमे अगर पानी भरा हुआ हो,
और साथ में सील बंद मुहर हो,
तो मुझे झट से खरीद लेती थी,
और अपने सीने से लगा कर,
दोनों हाथों में समेट चलती ,
और ज्यों ज्यों पानी घटता,
मेरे प्रति उसका लगाव भी,
कम होता जाता धीरे धीरे,
और बोतल में बची आखिरी बूंद
उसकी दिलचस्पी को शून्य कर देती,
और वो उस बूँद के रसावादन को,
कर देती एक दम नज़रंदाज़ ऐसे,
जैसे कभी उस प्लास्टिक की बोतल से,
उसका कोई मोह या सरोकार ही न हो,
और झट से उसके वोही हाथ,
एकाएक अचानक फेंक देते उसे,
कही बिना देखी राह पर बेदर्दी से ,
कोई भाव या पीड़ा का अहसास भी,
कभी भी नहीं आया उसके चेहरे पर,
बस सिर्फ एक ही भाव रहा हमेशा,
उसके उस चेहरे पर जो झलकता था,
उस प्लास्टिक की बोतल को फेंकते वक्त,
मुक्त होने का भाव तनिक हर्ष से युक्त,
और पीछे मुड़कर भी नहीं देखा उसने,
कभी उस प्लास्टिक की बोतल को ,
जो कुचली जाती , आने जाने वाले,
कई क़दमों से और पहियों के तले,
कई कई बार और लगातार, हर बार,
और मैं यही सोचता कुचलते वक्त,
अब शायद उसे मेरी जरुरत नहीं रही ....
----------मन-वकील

दुराचारियों को भी नाश

हे पार्थ , आओ जुल्म का करो तुम अंत, चला दो चक्र श्रीकिशन जी के तेज़ का,
मिटा दो धरती से पापियों बलात्कारियों को मिले न सुख उन्हें किसी सेज का,
जो मासूमों की अस्मिता से खेल करें और संग विच्छेद करे,नन्हे पावन संबंधो को,
आओ उस पापी की वध करें , छीन भिन्न अंग विहंग करे, सबक दे ऐसे दुर्बंधों को,
उनका जो साथ दे , पापी का हाथ बने, ऐसे दुराचारियों को भी नाश करे आज हम,
रुक न जाए कभी, रोध्ररूप धर के बस , ऐसे समाज का भी विनाश करे आज हम,
जो प्रतिहारी और प्रतिकार भी करे हमारा प्रतिरोध, दे उनको भी आज हम रोंद के रख,
न्याय की प्रत्रिक्षा नहीं, कोई अनुरोध, विनती नहीं , न्याय स्वयं बन जाये कोंध के हम,
ऐसे दुराचारी को केवल मृत्यु का भास् हो उससे कोई परिहास या हास न कर सके यहाँ,
ऐसे समाज का निर्माण हो, देविस्वरूप कन्या का मान सम्मान हो, प्रेम मिले हर जगह ////
==========मन वकील

भटकाव

भटकाव प्रिये , है जीवन का ही एक दूसरा नाम ,
जो न भटका कभी, वो शायद रहा निर्जीव सा सदा,
बहते जल, छितराते बादल , सभी रहते भटकते,
गति मंद हो या हो तेज , भटकाव रहता जीवन में,
भटकाव का अन्तः नहीं होता कभी मंजिल पर,
केवल वितृष्णा या तृष्णा का जाल सा रहता भीतर,
जो मजबूर कर देता सदैव , औड़ने को नए नए मुखौटें,
केवल आस के भरने , कुछ खाली हो चुके मनसा बर्तन,
एक साथी की तलाश , हमेशा अग्रसित करती रहती मुझे,
भटकाव भरी राह पर चलने को , बदल बदल ये मुखौटें,
अंधेरों के दौर आते, और बह जाते उजालों के शोर में,
और ये उजालें भी बदल जाते अक्सर, नए अंधेरों में,
बिखराव होता यदि मन का, पर मैं ना टूटता कभी भी,
केवल बहता रहता उसी समय के अविरल दरिया में ,
और पकडे हुए केवल अपनी उम्मीदों की डोर ह्रदय से ,
धोखे , विरह, मिलन या अवसाद , सब वाष्पित होते हुए,
छूते रहते मुझे एक के बाद एक, अक्सर , घटना क्रम में,
और मैं कभी भी मंद नहीं पड़ता , अपने उस भटकाव में.....
-....मन-वकील

निस्वार्थ प्रेम

क्या होता है सच्चा प्रेम? और क्या है इसकी परिभाषा,
जीवन में कभी दिखा ही नहीं, न ही की कभी इसकी आशा,
संवेंदनायों ने कभी महसूस नहीं किया, कभी इसकी परतों को,
जीवन केवल पाया हमने, केवल व्यापार और सौदों की शर्तों को,
तन की ज्वाला जलती बुझती देखि, और देखि बस वासना,
केवल यौन संबंधों के फलते बीज देखे, और उनके आसना,
सच्चा प्रेम पढते रहें हम, केवल कवितायों और लेखों में ,
परिभाषित करने में रहे असमर्थ, विचरण सा था अनदेखों में,
केवल इक रिश्तें में ही पाया हमने इस सच्चे प्रेम का मूल आधार,
मित्रो सभी रिश्तें मुनाफे के लिए होते, केवल निस्वार्थ माँ का प्यार...
==========मन-वकील

प्रेम का महाबली

वो जो सोनी है मेरे ह्रदय की धड़कन में वास करने चली
वो जो बेबाक है पर उससे सजती मेरे दिल की सूनी गली,
उसके शब्दों के उद्ध्गार विचलित करते मुझे, वो मनचली
फिर भी उससे मिलने को रहता बैचेन, वो लगती मुझे भली,
वो कहाँ से आती, कहाँ है जाती , जैसे पलाश पुष्प की कली,
मन के भीतर वो आकर देती दस्तक, पूछूं कैसे तू कहाँ चली,
जैसी भी है तू मेरी है सोनी, तेरे ह्रदय में करता हूँ मैं खलबली,
समझ प्रेम निवेदन या इसे जोर, पर हूँ मैं भी प्रेम का महाबली...
---------मन-वकील

सोनी की आस में

अब जब भी तुझे देखता हूँ,
तो नेत्रों से रक्त बहने लगता ,
और तुझे छूते ही, मेरे हाथों में,
कुछ होता और, रक्त बहने लगता,
गले में ध्वनि फँस गयी है अब मेरे,
तुझे पुकारते ही, रक्त बहने लगता,
शायद अब तुम हो गयी , "सोनी "
किसी देवश्राप की अनुभूति सी,
क्योकि अब तो तुम्हे सोचते ही ,
मेरे मनस पटल में रक्त बहने लगता,
कितनी पीड़ा होगी शायद भीतर,
तुम्हारे ह्रदय के रक्त में बहती हुई,
जो ना जाने कैसे , जाने क्यों, कब,
आकर चुपचाप बस गयी है मेरे भीतर,
मन-वकील का केवल मन ही नहीं,
समस्त चिंतन भी रक्तमयी है अब तो,
सोनी , ये तुमसे जड़ से चेतन तक,
प्रेम करने का फलित श्राप सा है ,
जो मुझमे तुम्हे देखने लगा है, और
तुम मेरे भीतर भी रक्त-रंजित सी हो,
अब तुम्हे पाना और अपने भीतर ही,
संजोकर रखना है जीवन का उद्देश्य,
क्योकि सोनी अब भी मेरे लिए तुम,
श्राप नहीं एक पूर्ण अभिव्क्यति हो,
मेरे प्रेम की उस सृजन कर्ता के प्रति,
जो सोनी को रक्त में बसा कर मेरे,
मुझ मन-वकील को रक्तिम राह पर,
तीव्रता से उड़ाकर ले जा रहा है, अब
अपनी और , मेरी सोनी की आस में,
======मन-वकील

रास रचैया...

आज सखी मोहे श्याम रंग भायो ,
सांवरे रंग मोये निरालो प्रेम धायो,
अरे गौरों रंग तो फीका पड़ जाएगो,
और सांवरो गहरो हो तन पे छायेगो,
शीतल बन रंग श्याम सो मिलायेगो,
रस रचैया मन में बस एसो लुभायेगो,
अरे कारी आँखों में कजरारे सो अघायो,
आज सखी मोहे श्याम रंग भायो ,
सांवरे रंग मोये निरालो प्रेम धायो,
======मन-वकील

क्यों विकल है? आज मन तू...

क्यों विकल है? आज मन तू,
निकल पड़ आज उस राह पर,
जहाँ सुमन से अधिक हो भरे,
कांटें , मान और अपमान के,
क्षुधा और सुधा के भेद में खोये,
भूल जा सब चेतना के अंश तू,
जहाँ खुले आसमान से ढँक जाये,
तेरी स्मृतियों के सुलगते से ढेर ये ,
जहाँ रात्री की कालिमा,छाये कुछ ऐसे,
और भरे कुछ खुली अनखुली सी परतें,
तेरे अश्रुरक्त रंजित बीतें हुए कल की ,
और ध्वनि भी अब बदले कुछ ऐसे,
जैसे धर लिये हो उसने नए आयाम,
विचलन और स्तम्भन का वो अंतर,
जहाँ तुझे मिलें कुछ नया सा अम्बर,
स्वरों के बीच उभरे कुछ नए सम्वाद से,
और मिलें नए पथिक और नए फासले,
क्यों विकल है? आज मन तू,
निकल पड़ आज उस राह पर, 


=====मन वकील..

लड़ाई...

अरे लड़ने को तो पड़ी है यारो, तमाम ये जिंदगी सारी,
फिर भी हाथों में उठा हथियार करते है हम क्यूँ तैयारी,
बातों के झमले से उगाते है,नफरत की, आग की क्यारी ,
और जब उजड़ जाता है यह चमन, तो रोते बैठ उम्र सारी,
खुशियाँ ना जो ढूंढ पाए कभी, आँखें थी अंधी शायद हमारी,
और जिसे प्यार समझे थे,वो शोला थी एक आग की चिंगारी,
घर को ही खाक कर बैठे हम अपने, पर जिद्द ना टूटी हमारी,
अब उसी खाक में ढूंढते है निशान कुछ, करके खुद हराकारी,,,,,,,,,,
========मन-वकील

फर्क........

प्यार के इज़हार में , और खंज़र के वार में,
कोई फर्क नहीं होता है , इक जैसे ही होते है,
दोनों ही देते , मेरे जिगर में गहरे वो जख्म,
लहू की तासीर में दोनों, एक जैसे ही होते है,
उनका दीदार मिले, तो मने ईद का कोई जश्न ,
दुआओं में उठते है वो हाथ, हम फिर भी रोते है,
उनकी शोखियाँ, वो उनकी अदाओं का सितम,
जब वो दिखे कहीं, मियां हम खुदा के बन्दे होते है..
=====मन-वकील

छोटू.......

अरे छोटू, कहाँ मर गया है, हरामजादे,
चल जा उस टेबल पे कपड़ा मार जल्दी,
वो भागता उस टेबल की और तेजी से ,
और ये गालियाँ अब उसकी किस्मत है,
उस टेबल के आसपास कुर्सियों पे बैठे,
वो भद्र-पुरुष और नारियां, न जाने कैसे,
अपना वार्तालाप बीच में छोड़ अचानक,
छोटू को देख, नाक मुहं ऐसे सिकोड़ते ,
जैसे किसी कूड़े के ढेर पर हो वो बैठे,
उसके सफाई वाले कपडे से आती दुर्गन्ध,
उन्हें उस छोटू के भीतर से आती हुई लगती,
छोटू के वो छोटे हाथ एकाएक, तेज़ तेज़ ,
उनकी टेबल पर छपी चिखट को मिटाते,
और उधर उसका वो बचपन भी धीरे से ,
मिटता जाता, चुपचाप, बिना किसी शोर के,
और वो भद्र मानुस और मेमसाब, देख कर सब,
ऐसे अनजान से बने रहते, मूर्ति के जैसे, जड़वत,
जैसे उनके अपने आँगन में बालावस्था न हो,
और फिर वो भद्र पुरुष, प्रकट करते अपने चरित्र,
चीख कर कहते , जैसे वो हिमालय पर हो चढ़े ,
अबे छोटू , जा जल्दी से दो स्पेशल चाय ला,
और हाँ, साले उँगलियाँ गिलास में मत डालियो,
जैसे छोटू इन भद्र मानुस का कोई गुलाम हो,
और छोटू के कदम मुड जाते, भट्टी की ओर,
जैसे वो चाय लेने नहीं, खुद को उस भट्टी में ,
झोंकने जा रहा हो, बदकिस्मती से बचने के लिए,
रोज़ रोज़ की गालियाँ और बोनस में पड़ती लातें,
और कभी कभार, आने वाले ग्राहकों के थप्पड़,
उसने भुला दिया है इन सब के बीच, सहते हुए,
अपना वो बचपन, जो उसे खिलाता और खेलाता,
कभी अपने बापू के कन्धों पर सवारी करवाता,
और माँ के हाथों से लाड से दाल भात न्योत्वाता,
परन्तु बापू के गुजरने के बाद , परिवार का बोझ,
नन्ही नन्ही बहनों की फटी हुई मैली फ्रान्कें,
और माँ के हाथों में आ चुकी वो कुदाल और टोकरी,
कहाँ लेकर आ गयी है , इस छोटे से छोटू को ,
उसके बचपन से कोसो दूर, इस चाय की दुकान पर,
जहाँ पेट में रोटी से पहले, गालियाँ और लातें मिलती,
उसके बचपन के बचे हुए अंश को मिटाने के लिए,
जो भीतर तो छुपा है , पर हमेशा लालायित रहता,
उसके बाहर आने को किसी रोज़, मरते हुए भी ............
===========मन-वकील

हे प्रिये सोनी

अब कभी भी , कोई चेष्टा ना होगी,
तुझे प्राप्त करने की , हे प्रिये सोनी,
फलीभूत हो गयी है श्रापों से निरंतर,
हमारी प्रेम गाथा,विचित्र सी धूसरित,
मेरी भूल थी, जो स्मरण न रख पाया ,
कभी तुम्हारे उस देव-तुली अभिरूप को,
न मान सका, टूटे ह्रदय से , जान भूझकर,
तुम्हारे एक निष्काषित देव-कन्या होने को,
और इंगित भी ना कर पाया कभी मन से,
तुम्हारे इस नगर-वधु होने के कारण को,
और आपेक्षा सदैव उपेक्षा को धकेलती रही,
निरंतर प्रत्यंतर, अनजानी सी एक आस में,
मैं मन वकील नित बुनता रहा न जाने क्यों?
स्वपन , तुम्हारे संग चन्द्र-मास बिताने के,
नेत्रों में , जैसे तुम अश्रुओं से अधिक थी बसी,
और मैं , करता रहा तुम्हारी हर अक्षम्य सी ,
भूल को, किस सुध में बेसुध हो क्षमा,हर-बार,
व्याकुलता की तीव्रता , आन बसी थी कहाँ से,
मेरे भीतर, जो अग्नि से तेज़ तपित कर देती,
मेरे ह्रदय में तुम्हारे प्रति, उस कुलषित मोह को,
और तुम सदैव अंगीकृत करती रही , वासनित हो,
अनजान पुरुषों के कामुकता-जनित आलिंगन को,
और मैं प्रतीक्षा-रत हो, पलकें बिछाएं खड़ा रहा,
तुम्हारे लिए चिंतन-रत, एक साधक सा बना रहा ,
तुम लगी रहती , औरों के चित भरमाने मध् सी,
और मुझे, सोनी ने जल से भी तृप्त नहीं दिया कभी ,
मुख पर बोल भी हो गए, एक सुखी नदी के समान,
जो तुम्हे कहने को तो होते आतुर, और बह न पाते,
तुम्हारे प्रणय प्रसंगों ने, भर दिए थे केवल अवसाद,
जो रह रह कर आते ज्वार भाटा के लहरों की भांति,
मेरे मन के अथाह सागर में , केवल शांति भंग करने,
रक्तिम हो चुकी नेत्रों के पुतलियाँ , बार बार रुध्रण से ,
और वाणी साथ छोड़ गयी थी , तुम्हारे जैसे , क्रंदन से,
परन्तु मन की एक आस , दूर एक शिवालय की लौ सी,
जलती रही भीतर, इसी आस में, सोनी तुम फिर आओगी,
लौट कर ,इस भूलोक में , केवल मेरे लिए और मेरे पास....
=========मन-वकील

Monday, May 16, 2011

क्या लाया था क्या ले जाओगे???:

Another Sweet Poem which is really heart touching by Man-Vakil

रुक गया हूँ मैं अभी , और नेत्र भी अब है थक चुके ,
क़दमों से बंध गयी धरती साथ , प्राण भी मृत हो चुके,
चेतना शून्य होने तक रहा सफ़र, अब श्वास मर चुके,
स्पंदन भी नहीं रहा तन में, श्वेत चादर अब ढँक चुके,
मूल से अवमूल होने तक स्मृतियों के जड़ कट चुके,
लीन होने उस ब्रह्माण्ड में, आत्मा अश्व कूच कर चुके,
शेष जो था, उसे कंधे पे उठा बन्धु भी अब चल चुके,
जो मिटा न पाए मुझे भीतर से, वो भी क्रंदन कर चुके,
और जो करेंगे मुझे मूर्तिमंडित, वो पाषाण भी रच चुके,
लेकिन मैं बन गया हूँ भूतकाल , जो न वापिस आऊंगा,
जितने वर्ष लिखे थे मेरे भोग विलास में, अब कट चुके,

अहिस्ता अहिस्ता:

The first poem for this cause from Man-Vakil

अहिस्ता अहिस्ता देश मेरा कुछ घटता सा जाता है,
और जनता के दिल का बोझ अब बढ़ता ही जाता है,
गुमनामी के अंधेरों से भी उठती है अनबुझी तस्वीरें,
कोई आकर, मुझमे मरी क्रांति सा जुड़ता जाता है,
और सिक्के भी अब तो पड़े रहते है इन सड़कों पे,
पर मेरी जेब में पड़ा यह नोट भी सड़ता जाता है,
अरे रोशनी के अम्बार लगे है अब उन चेहरों पे,
पेट की भूख के आगे, इनका तन बिकता जाता है,
कुर्तें पजामे,टोपी वालों से अब डर लगता है भाई,
सरकारी खजाने के भण्डार भी रोज़ घटता जाता है,
सेंध लगती है मंत्रालयों में, अब तो दिन के उजालों में,
कुर्सी से चिपके इन चोरों का हजूम भी बढ़ता जाता है
भूख से बिलकते बच्चे, चौराहों पर बिकते है रोज़ रोज़,
और योजनाओं से बाबू के घर का सामान बढ़ता जाता है,
अरे, आयोजन अब बन गए है प्रयोजन के नए उपाय,
खद्दरदारियों की पूंजी से अब खेत मेरा उजड़ता जाता है,
फौजी लड़े अब सीमा पर, पर घर में लुट जाए परिवार,
उसके मरने के दाम से, एक कांसे का पदक खरीदा जाता है,
अरे कागज के पुरूस्कार है बांटे जाते,सत्ता के गलियारों में,
हर चापलूस का, अब पद्म-अलंकारों से सत्कार किया जाता है...
अहिस्ता अहिस्ता देश मेरा कुछ घटता सा जाता है,
और जनता के दिल का बोझ अब बढ़ता ही जाता है.

Why is this Blog???

Hello friends!!

You all must be thinking why is this blog and why I am writing this blog...Just to answer few of your points and confusion...


Friends..I have a dream to do something for the child labor in our country..We together can eliminate the chil labor system from our country...So why dont we do something for them??
All I want here is just to have few original poems...which can be accumulated and then published in the form of a book..All the income from the sales of this book will be dedicated towards the betterment of the poor children in India..

So Friends,Please contribute with lovely poems and participate for better India and better Indian Future!!!


Hope you all will understand the need and try to contribute in this BLOG!!

Thanking You
Vivek Kumar Goel

Engineer- Ericsson Global Services India Pvt. Ltd.
Noida