Saturday, August 13, 2011

क्या हूँ मैं?

कुछ शब्दों में समेटना चाहता हूँ मैं सारा नीला आकाश,
फिर भी ना जाने क्यूँ, पैरों तले जमीन खिसका जाती है ,
कभी चहुँ अगर रोकना, बहते मन के भावों कि नदी को,
फिर भी ना जाने कैसे, रेत सी हाथों से जिन्दगी फिसल जाती है
नहीं हूँ आकाश मैं, पर कुछ अंश उसका भी समेटे हूँ,
नहीं हूँ जल का अभिप्राय, पर कुछ अंजुली भी समेटे हूँ ,
वायु सा  नहीं हूँ तेज़ मैं, पर कुछ उड़ते भाव समेटे हूँ ,
धरा सा विशाल नहीं रहा मैं, पर कुछ कण भी समेटे हूँ,
ओज़स शायद भरा हो कुछ भीतर मेरे, जो प्रकाशित हूँ मैं,
पावक में देह से राख बदल जाऊँगा, कुछ पञ्चभूत सा हूँ मैं|||

-मन वकील

राखी का बंधन !

कुछ रेशम के धागे है जो बाँधते है , प्रेम का एक सच्चा नाता,
वो छोटी बहन या बड़ी दीदी के संग अविरल स्नेह को जगाता,
कलाई पर बंधकर जो ना जाने कैसे मन की गहराई को पाते,
जो व्यापारिकता से हटकर , भाई बहन के रिश्तों को सजाते,
जब वो दूर हो जाती तो कैसे मेरे नेत्रों से बहने लगती अश्रु धारा,
जिस बहन के संग खेला, कैसे भुला दूँ वो रिश्ता प्यारा हमारा,
आज फिर उसी रिश्तों को मज़बूत करने का फिर वो दिन है आया,
सदा नमन है उस देव तुल्य को जिसने रक्षा बंधन का दिन है बनाया......
======मन वकील

Sunday, August 7, 2011

स्नेह था या फिर मोह

उससे स्नेह था या फिर मोह,
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
न जाने क्यों मुड़ मुड़ कर कदम,
फिर बढ आते उसी राह पर,
और नैन खोजते रहते यहाँ वहां,
उसकी वो मोहिनी मूरत को,
और बैचैन सा हो उठता था मैं,
सुध नहीं रहती अपने तर्कों की,
और वो सारे प्रण भुला बैठता,
मैं एकाएक ना जाने क्यूँकर,
अशांत मन अतृप्त काग सा,
और कोई औंस की बूंद भी,
नहीं मिलती किसी प्रेयसी से ,
फिर मैं नए प्रण लेता, हारकर,
केवल यही धूल पुनः छांटने को,
सोचता रहता सदैव, मैं मन में ,
उससे स्नेह था या फिर मोह,
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
====मन-वकील