Monday, January 2, 2012

दीवारों पर लिखी इबारत ....

दीवारों पर लिखी इबारत की तरह,
जिन्दगी अब रोज़ पढ़ी जाती है मेरी,
कई कई बार पोता गया है इस पर,
चूना किसी और की यादों से गीला,
ना जाने क्यों? उभर आती है बार बार,
लिखी हुए इबारत ये, झांकती सी हुई,
चंद छीटें जो कभी कभार आ गिरते,
बेरुखी से चबाये किसी पान के इस पर,
रंगत निखर आती इसमें दुखों की युहीं,
अरमानों की बुझी काली स्याही से लिखी,
आज भी बता देती ये मेरे भाग में बदा,
पानी से मिटने की चाह भी ना जाने अब,
चाहकर भी कही ना जाने कहाँ गम है,
बस दिखती है तो ये मेरी जिन्दगी ऐसे,
दीवारों पर लिखी इबारत की तरह युहीं ....
==मन वकील

जब लेखनी हो गयी उदास

जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
भावों की नैया रहे डगमगा,
मन के भीतर नहीं अहसास
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
संदूक में छुपा कर रखा है,
जो खेलता था कभी रास,
अवशेष है जैसे कोई राख,
ख़ामोशी लेती है मेरी सांस,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
कोनों में पड़े थे जो आंसू,
निकल करे लेते है अड़ास,
रोकने पर भी नहीं रुकते ये,
दिखलाकर पीड़ा की खटास,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
===मन वकील

५ गज भर की सफ़ेद चादर

रखाकर तू हौंसले अब, सीने में डालकर इरादों का फौलाद,
दौर है कुछ ऐसा अब,जो आँखें दिखाती है अपनी ही औलाद,
वक्त की पहचान कर अब, जेहन को दिमाग से ऐसे जोड़कर,
कौन भौंक देगा खंज़र, तेरी पीठ में ऐसे ये झूठे नाते तोड़कर,
राहें होगी अनेक पर संग होंगें उनपर मुसीबतों के कई पत्थर,
चलना तो होगा युहीं इन्ही राहों पर, चाहे रोकर या फिर हसंकर,
सोच भी बदलेगी,जब देखेगा तू बदलती दुनिया की अजब रंगत,
अकेला बढ़ चलाचल जिन्दगी के काफिले में,न जोड़ कोई संगत,
गैरों ओ अपनों के फर्क में, रहेगी एक महीन सी लकीर यहाँ वहाँ,
ढूंढ़ले बस रोशनी डगर पर,खुशियाँ अब मिलती इस जहाँ में कहाँ,
सफ़र पूरा होते ही निकल, पहन कर ५ गज भर की सफ़ेद चादर,
लोग बस मिटटी में मिला देंगे,मिलता है बाद में मुरझाये फूलों से आदर ....
==मन-वकील