Wednesday, November 30, 2011

कभी जो ऐसे अपने पांव देखा

धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
सरकती और सिमटती कभी उस धूप को होते छाँव देखा,
उजालों से घिर घिर के आये, कभी स्याह अँधेरे ऐसे भी,
साँसों को बिलखकर रोते, मौत से मिलते दबे पाँव देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
उम्मीदों के घरोंदें होते है बस, कुछ रेत से भी कमज़ोर,
आंसू मेरे बहा दे इन्हें ऐसे, टूटते इन्हें बस सुबह शाम देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
जहाँ ढूंढते रहते है हम, उनके पैरों के वो गहरे निशान,
उस दलदल को सूखते हुए,बदलते दरारों के दरमियाँ देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
कभी तो पूछ मुझसे यूँ तू,मेरे ऐसे बिखरने का वो आलम,
क्या बीती मुझ पर जब, पड़ते उलटे जिन्दगी के दाँव देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,