Saturday, April 14, 2012

देश मेरा है बेसहारा!

सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा
राहगीरों को लुटने वाले डाकू कहाँ हो गए गुम,
सांसद बन अब उन्हें सड़कों पे लूटना नहीं गंवारा,
जनता के पैसे से अब वो जनता को ही रौन्धतें,
देश को अब कौन कृष्ण आकर देगा सहारा,
शोर मत करों अब यहाँ नहीं होगी कोई क्रांति,
अब तो मौनव्रत करने पे लगती है १४४ की धारा,
सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा
खेल संगठनों के पदों पर काबिज़ है बेशर्म बेखिलाड़ी,
कौन बनेगा यहाँ मिल्खा या ध्यानचंद दुबारा,
गुब्बारों के नाम पर उड़ा देते है जनता का धन,
बेशर्म ये बाबू घुमने चले जाते है लन्दन या बुखारा,
विकास शब्द अब रह गया है इक नारा बनकर,
ज्ञान और शिक्षा को अब आरक्षण ने है मारा
सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा,
बांटकर खाते है धर्मं और जातियों में हमें, ये नेता,
चरित्र व् राज धर्म से नहीं होता अब इनका गुज़ारा ,
वोट की अब कीमत झुग्गियों में अब खूब है बंटती,
दारु हो या कम्बल, बटन दबवाते है कई-२ हजारा,
बहु बेटियों के नाम पर बंटती है खूब वजीफों के रकम,
राह चलते उन्हें लुटते, संग पुलिस लेती है चटखारा,
सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा ...
==मन वकील

Sunday, April 8, 2012

अब तक!

ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,
सिलसिलें जो थे ग़मों के,वो सिलसिलेवार रहे आते जाते,
मैं मायूसियों में अपनी खुशियाँ टटोलता रहा बस आज तक,
कहने को वो थे अपने,पर दुश्मनी रहे हमसे युहीं निभाते,
खोने के डर से उनको, बस माफ़ करता रहा मैं अब तक,
ये सितम क्या कम थे, जो हमेशा रहे हम कमतर बनके,
मैं क्या उड़ता हवा में, बस पैरों तले जमीं न मिली अब तक
ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,
=मन वकील

जिन्दगी को ढूंढे यहाँ वहां!

इक फलसफ़ा सी है जिन्दगी, कोई पढ़ी अनपढ़ी किताब सी,
कभी कुछ जोड़ जाती, कभी घाटे में जाते कोई हिसाब जैसी,
जब कोई तन्हाइयों में अपनी जिन्दगी किया करे फनाह,
उथल पुथल सी मचाकर, बस मुसीबतें दिया करें बेपनाह,
कभी हाथों से सरक कर,रास्तों में आ बैठे रूठकर यूँ मुझसे ,
कभी हवाओं में उढने को होती, बस कुछ चिढकर यूँ मुझसे,
कहीं ख्वाबों को तलाशती फिरती, उम्मीदों के सिर पे चढ़कर
कभी सब्र की चादर ओढ़कर, पडी रहती आँखों में आंसू भरकर
कभी धुएं सी फ़ैल जाती, कभी घुटती कभी बस ये मचलती,
कभी पानी का एक झरना बन, घनघोर सी नीचे को फिसलती,
कभी बेसब्र सा इक बच्चा, खिलौनों की आस लगाए बस रहती,
कभी बोलती रहे बेसाख्ता,कभी गूंगी से चुपी लगाए बस रहती,
कहीं टटोलती है कुछ पत्थर, जो बेजान करते इसकी किस्मत,
कभी लुटेरों की बन ये लूटे, कभी लेकर फिरती अपनी लुटी अस्मत
अन्जान सा बनकर, मन वकील बस जिन्दगी को ढूंढे यहाँ वहां,
ये जिन्दगी है एक तितली, टिकती ये बस एक जगह कब कहाँ ?
==मन-वकील