Wednesday, October 26, 2011

ए खुदा कुछ ऐसा कर दो !


इस जीवन का एक सार बना दो,
आज मुझे बलि पथ पर चला दो,
सत्य नहीं असत्य भरा इस घट में,
कोई कंकर मार इसे तोड़ गिरा दो,
रागों को बैरागी लेकर अब निकले,
बेसुरों से सब संगीत युहीं सजा दो,
कौवों को पहनाओं तमगे पुष्पहार,
कोयल को अब पत्थर मार भगा दो,
गिद्दों के संग खायो बैठ ये निरामिष,
ज्ञान हंसों को अब यहाँ से उड़ा दो,
रहने दो अब ये बालाएँ केवल नग्न,
इनके वस्त्र अब हरण कर बिखरा दो,
रोने दो अब भूखे मानव को बस ऐसे,
अन्नित खेतों पर अब कंक्रीट बिछा दो,
कहाँ क्रांति ला पाओगे अब तुम मित्रों,
बस मेरे ही विद्रोही स्वर को मिटा दो ....
===मन-वकील

प्यार की वो मजार

कहने की बात थी वो उसे कहदी और सुना दी कब की,
जो दिल पे बन आई थी वो छुपाकर भी दिखा दी कब की,
दुनिया की हवस में अपनी हस्ती ही मिटा दी कब की,
क्या कितना खोया अब दीन-ओ इबादत भुला दी कब की,
दिल लगाने की ऐसी सज़ा मिली, रूहे आतिश बुझा दी कब की,
अब नहीं फ़िक्र नहीं फनाह होने की, हर हसरत मिटा दी कब की,
कब्र या इबादतगाह क्यूँकर जाए अब हम कभी, ऐ मेरे दोस्त,
जब इस दिल में उनके प्यार की वो मजार सजा दी कब की ,
एतिबार नहीं खोया खुद पे, ना खायी कभी भी झूठे कसमें हमने,
जब जहर-इ नफरत पीकर हर सुं, दीवानगी ऐसे लुटा दी कब की
दफ़न कर दिए सब हुजूमे-गम भीतर, छुपाकर सभी हसरतें अपनी,
बस यार की राह तकते तकते, जिन्दगी अपनी लुटा दी कब की ....
==मन-वकील

उनके आने का सबब

रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
आँखों में नशा, होंठो पे प्यार का सबब बनता है..
वो जो आ जाते है तो पल में सब ठहर जाए,
उनके आते ही खुशबू सी हर सु बिखर जाए,
हुस्न के उनके दीदार तो वो कमबख्त चाँद भी चाहे,
अठखेलियाँ करती है हवा, ये मौसम भी मुस्काये,
तन में मेरे हरारत सी का कुछ सबब बनता है
रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
रौशनी फैले उनके नूर-इ-हुस्न की फिजाओं में,
रात आकर दुआएं मांगती ,रहने को उनकी पनाहों में,
चाहू उनके मुखड़े पर, बस मेरे नाम की हो पुकार,
वो मुझे छू लेने दे, कर लूं मैं हुस्न के पुरे दीदार,
आज बस बातों से परे,खामोश आहट सबब बनता है,
रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
==मन-वकील














रंगरेज़


मैं था रंगरेज़ के हाथों में इक कपडे जैसे,
थामे था जो मुझको,वो हुआ रंगने को ऐसे,
मैं जो पल में था हल्का, सफ़ेद बादल जैसे ,
अब युहीं गहरा हो गया, ना जाने क्यूँ ऐसे,
मासूमियत मेरी वो,अब सिमट गई हो जैसे,
अब खुद की पहचान ढूंढ़गा,मैं खुद में कैसे,
भरी भीड़ में था डर,मैल छूने पे जो मुझे जैसे,
अब घटा सी मुझमे छाई, कई दागों की ऐसे,
विवादों से परे रहकर, जो मैं जीया था ऐसे,
अब घिर गया हूँ उनमे,निकलूंगा बाहर कैसे ....
==मन-वकील

नहीं याद करते तुझे हम.

गम से निजात कहाँ, अब चैन मिलता हमें अब कहाँ,
गंगा भी है अब सूखी,जो बहते खून के दरिया यहाँ वहां
अरे जन्नत और जहन्नुम के फर्क को,ऐसे अब भूले हम,
तू क्या खुदा है, ना मिलने पे तेरे,फिर क्यूँकर करते गम,
नाराज़ है वो खुदा भी,जो मेरी बंदगी से भी नहीं है मानता,
मनाये किसे मन-वकील, रूठे खुदा को या तुझे, नहीं जानता
अरे दोस्तों को भुला कर, तेरी रौशनी को क्यूकर हम चाहे
गैरों की खाती हो तुम कसमें, फिर क्यूँकर ना तुझे भुलाए,
हम भूलने की चीज नहीं, खूब याद रख तू ऐ बेवफा सनम,
तुझे दिल से है मिटाया अब हमने, नहीं याद करते तुझे हम...
==मन-वकील