Friday, October 26, 2012

क्यों मर गया अब मेरा देश??

जाकर समन्दर के किनारों से कह दो,
गिरते झरनों के सफ़ेद धारों से कह दो,
कह दो जाकर बहती नदियों के जल से,
जोर से कहो जाकर हवा की हलचल से,
ऊँचे पहाड़ों में जाकर कर दो तुम ऐलान,
जरा चीखों ऐसे, जो सुन ले बहरे मकान,
कुदरत के हर जर्रे में फैलाओ यह खबर,
अब इस मुल्क में बेईमान हुआ हर बशर,
खजानों में करे क्योकर हम अब पहरेदारी,
लूटमारी करती फिरे अब सरकार हमारी,
बाशिंदों के मुहँ पर जड़े अब सख्त से ताले,
गरीबी रहे हर जगह रोती,छीन गये निवाले,
बेरोज़गारी पर अब चढ़े जाए रंग सिफारिश,
अब कहाँ बरसती है मेरे खेतों पर वो बारिश,
मैं गर खोलता जुबाँ, तो बनते पुलिसिया केस,
मैं बैठा रोता हूँ, क्यों मर गया अब मेरा देश ..........
==मन वकील

मेरा गाँव!

धरातल से ऊपर मेरे पाँव है,
कहीं छुप गया वो मेरा गाँव है,
कभी बादलों से घिरा रहता था,
कभी हवाओं का जोर सहता था,
पेड़ों की डालियों पर थे पत्ते हरे,
खेत थे खलियान भी थे सब भरे,
लोगों की महफ़िल थी शोर था,
खुश थे सब ना कोई कमज़ोर था,
वजह थी वहीँ न बेवजह था कोई,
रातें थी चांदनी पर,रहती वो सोई,
कहाँ सब जा बसे अब कहाँ गाँव है
कहीं छुप गया वो मेरा गाँव है,
राह थी चलती, जो लोग चलते,
वहीँ जानवर दोस्तों से थे पलते,
सब नज़दीक था मंदिर भी वहीँ,
पाठशाला की घंटी से हिलती जमीं,
बच्चे थे संग थे खेल कंचे और हाकी,
सभी एक से एक, ना कमी थी बाकी,
बस एक दिन कोई धुंआ आ गया,
मेरे गाँव के सब खेत ही वो खा गया,
अब बस दौड़ते है मजबूरी के पाँव
कहीं गुम हो गया वो मेरा गाँव,
==मन-वकील

कितने रावण ?

कितने रावण मारोगे अब तुम राम?
हर वर्ष खड़े हो जाते शीश उठाकर,
यहाँ वहाँ, हर स्थान पर पुनः पुनः,
कभी रूप धरते वो भ्रष्टाचार बनकर
कभी अत्याचार किसी निरीह पर,
कहीं बिलखते बच्चे की भूख बनकर,
अक्सर महंगाई का विकराल रूप धर,
कहीं धर्मांध आतंक के चोला पहनकर,
कभी किसी महिला के कातिल बनकर,
कभी कसाब तो कभी दौउद बन बनकर
कभी मिलते राहों में कोई नेता बनकर,
अब नहीं दशानन वो है वो शतकानन,
मिलते है वो बनकर अब तो सह्स्त्रानन,
बस कलियुग में ही होते ऐसे अधर्मी काम,
कितने रावण मारोगे अब तुम राम?
==मन वकील

Saturday, September 8, 2012

"खोया हुआ नसीब"

"खोया हुआ नसीब"
बुढ़िया की मोतियाबिंद से सजी आँखों में,
कम दिखाई देती परछाइयों को समेटे हुए,
जिन्हें कल संजोये थी अपनी खोख में वो,
जिन्हें खिलाती रही थी अपना भी निवाला,
वो आज कहाँ जा बसे,अब क्यों नहीं करीब,
धुंधली धुंधली लकीरों सा,खोया हुआ नसीब,
कूड़े के ढेर पर बैठे कुक्कर के संग वो नन्हे,
नन्हे हाथों से बीनते थे कागज़ के चीथड़े वो,
वो चंद चीथड़े भी आज है उनके तन पर भी,
चेहरे पर छपी मासूमियत भी होती ओझल,
शक्ल पर अब बेबसी है जो आ बैठी करीब,
बदबू से लिपटे मासूमो का, खोया हुआ नसीब,
कभी भागती रहती यहाँ से वहां हो बदहवास,
कभी चंद लिखे मुड़े से वो कागज़ मुठ्ठी में,
कभी आँखों में उभर आती बेबसी बन भूख,
जो छोड़ चला गया ऐसे, घेरती अब उसे धूप,
बड़े बाबू की वो भूखी नज़रें,क्यों लगती करीब,
क्यों जिन्दा है वो सोचती, खोया हुआ नसीब ...
==मन वकील

Sunday, July 15, 2012

बोल बम!

पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
हाथ में थामे कावंड, चाह नहीं अब कुछ और,
मन सुमरे शिव नाम,होए रहा "बोल बम" शोर,
थिरके पग राह पर,जो नाचे मयूर सह घनघोर,
अरे, शिव की ऐसी मन में लौ है उसने जगाई,
भूला सुध बुध, पड़े नीलकंठ की राह दिखाई,
जोर जोर से वो भागे,अपने घर को पीछे छोड़
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
सावन लाये संग अपने वो कैसी पावन बेला,
शिव बसे मन, चले जोगी पथ पर ना अकेला,
कावंडमय हुआ नगर,चले शिव भक्तों का जोर,
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
जन देख रहे अचरज में, कैसी शिव की भक्ति,
पग में चाहे पड़े छाले, पर मन में घटे ना शक्ति,
अरे, कैसी दुविधा,चले ना कोई पीड़ा का जोर,
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
मन में धरे जोगी अपने, केवल एको बिचार,
शिव मेरे त्रिलोकपति, आन करेंगे मेरा उद्धार,
गंगाजल डाल शिवलिंग पर,थमा दूँ मन की डोर,
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
मन सुमरे शिव नाम,होए रहा "बोल बम" शोर,
थिरके पग राह पर,जो नाचे मयूर सह घनघोर,
==मन वकील

Sunday, June 17, 2012

होड़

आज चोरों डकैतों में अपना सिरमौर,
चुनने के लिए जबरदस्त होड़ पड़ी है,
तभी संसद के कैंटीन वाला कहता है,
आजकल संसद में बेसिज़न भीड़ बढ़ी है,
जो बनाए रहते थे कभी अपने अपने दल,
अपने मुद्दे की आड़ में करते थे हलचल,
कल तक जो बकते इक दूजे को गालियाँ,
अब गलबहियां डाल पीटते वो तालियाँ,
उन दलबदलुओं में जुड़ने की चाह बढ़ी है,
आज चोरों डकैतों में अपना सिरमौर,
चुनने के लिए जबरदस्त होड़ पड़ी है,
सब के सब चाहते बस इक रबड़ की मोहर,
जो बस अंगूठा टेकें, बने ना उनका शौहर,
जो उनके भेजे विधेयकों पर उठाए ना सवाल,
कौन कहाँ गवर्नर बने, रखें ना इसका ख्याल,
बस ऐसे एक जमुरें को जमुरियत सौपने की पड़ी है,
आज चोरों डकैतों में अपना सिरमौर,
चुनने के लिए जबरदस्त होड़ पड़ी है,
==मन वकील

Tuesday, June 12, 2012

जेंटल मेन

वो है क्रिकेट का भी असली जेंटल मेन,
सौम्य सरल पारंगत,जो कहते सब फैन,
नित नए रिकार्ड रचे लगाये नित शतक,
हर गेंद को सहज ही खेले,पारी होने तक,
यदि आउट होय, तो भी रहता वो शांत,
प्रशंसा करते सब, कपिल हो या श्रीकांत,
ब्रेडमैन से करते,देसी बिदेसी उसका मेल,
अलग शान से, अलग ढंग से खेले वो खेल,
तभी राजनीतिज्ञों ने बुला उसका पूछा हाल,
राज्यसभा में नामित कर,फेंका मायाजाल,
करने सुशोभित उसकी विधा,भेजा शाहीपत
आओ प्यारे संग बैठो हमारे,लेकर एक शपथ
झटपट ही कर डाला,संसद में उसका टीका,
अखबारों में जोरदार छपा,पर लगता था फीका,
फिर किया सरकार ने, उस प्यारे पर अहसान,
युवराज़ के पास बंगला अलोटकर,बढाई शान,
पर वो प्यारा था सचमुच सच्चा सहज सरल,
झट मना किया,रहने को वो बंगला अविरल,
राज्यसभा में आया अब,इक असल जेंटलमेन,
जो सत्ता के भूखों से अलग चल, करें उन्हें बैचैन ...........
=========मन वकील

Friday, May 11, 2012

क्यों मार दिया मुझे बापू?

जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
आज पड़ोस की बिट्टो को डाक्टर,
बनते देख,क्यों फूट फूट रोते हो बापू,
शर्मा जी के आँगन में फैली हुई, वो,
राखी पर खुशियों की सतरंगी चादर,
भाइयों के हाथो पर बंधते पवित्र धागे,
अब क्यों सांप लोट रहा छाती पर, बापू,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
रहमान चाचा को जाते देख,बेटी संग,
अपनी साइकिल पर बैठकर, स्कूल को,
बहुत हसरतों से आँखों में नमी लाते, बापू,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
गुप्ता जी की बेटी की बिधाई के मौके पर,
माँ को थाम कर बहुत रोते रहे,झरने से,
और कहते रहे, अगर आज मैं होती, तो,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
जब भैया ने पकड़ तुम्हारा वो हाथ, ऐसे,
मरोड़ दिया था, तुम्हारे बाप होने का गरूर,
तब आसमान की ओर मुहं करके, बहुत रोये
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
अब जब तक रहोगे, इस धरती पर,
रहोगे सदा कोसते खुद को, दिन भर
संग में रुलाओगे माँ को भी, मुझे याद कर,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
=मन- वकील

Saturday, April 14, 2012

देश मेरा है बेसहारा!

सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा
राहगीरों को लुटने वाले डाकू कहाँ हो गए गुम,
सांसद बन अब उन्हें सड़कों पे लूटना नहीं गंवारा,
जनता के पैसे से अब वो जनता को ही रौन्धतें,
देश को अब कौन कृष्ण आकर देगा सहारा,
शोर मत करों अब यहाँ नहीं होगी कोई क्रांति,
अब तो मौनव्रत करने पे लगती है १४४ की धारा,
सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा
खेल संगठनों के पदों पर काबिज़ है बेशर्म बेखिलाड़ी,
कौन बनेगा यहाँ मिल्खा या ध्यानचंद दुबारा,
गुब्बारों के नाम पर उड़ा देते है जनता का धन,
बेशर्म ये बाबू घुमने चले जाते है लन्दन या बुखारा,
विकास शब्द अब रह गया है इक नारा बनकर,
ज्ञान और शिक्षा को अब आरक्षण ने है मारा
सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा,
बांटकर खाते है धर्मं और जातियों में हमें, ये नेता,
चरित्र व् राज धर्म से नहीं होता अब इनका गुज़ारा ,
वोट की अब कीमत झुग्गियों में अब खूब है बंटती,
दारु हो या कम्बल, बटन दबवाते है कई-२ हजारा,
बहु बेटियों के नाम पर बंटती है खूब वजीफों के रकम,
राह चलते उन्हें लुटते, संग पुलिस लेती है चटखारा,
सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा ...
==मन वकील

Sunday, April 8, 2012

अब तक!

ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,
सिलसिलें जो थे ग़मों के,वो सिलसिलेवार रहे आते जाते,
मैं मायूसियों में अपनी खुशियाँ टटोलता रहा बस आज तक,
कहने को वो थे अपने,पर दुश्मनी रहे हमसे युहीं निभाते,
खोने के डर से उनको, बस माफ़ करता रहा मैं अब तक,
ये सितम क्या कम थे, जो हमेशा रहे हम कमतर बनके,
मैं क्या उड़ता हवा में, बस पैरों तले जमीं न मिली अब तक
ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,
=मन वकील

जिन्दगी को ढूंढे यहाँ वहां!

इक फलसफ़ा सी है जिन्दगी, कोई पढ़ी अनपढ़ी किताब सी,
कभी कुछ जोड़ जाती, कभी घाटे में जाते कोई हिसाब जैसी,
जब कोई तन्हाइयों में अपनी जिन्दगी किया करे फनाह,
उथल पुथल सी मचाकर, बस मुसीबतें दिया करें बेपनाह,
कभी हाथों से सरक कर,रास्तों में आ बैठे रूठकर यूँ मुझसे ,
कभी हवाओं में उढने को होती, बस कुछ चिढकर यूँ मुझसे,
कहीं ख्वाबों को तलाशती फिरती, उम्मीदों के सिर पे चढ़कर
कभी सब्र की चादर ओढ़कर, पडी रहती आँखों में आंसू भरकर
कभी धुएं सी फ़ैल जाती, कभी घुटती कभी बस ये मचलती,
कभी पानी का एक झरना बन, घनघोर सी नीचे को फिसलती,
कभी बेसब्र सा इक बच्चा, खिलौनों की आस लगाए बस रहती,
कभी बोलती रहे बेसाख्ता,कभी गूंगी से चुपी लगाए बस रहती,
कहीं टटोलती है कुछ पत्थर, जो बेजान करते इसकी किस्मत,
कभी लुटेरों की बन ये लूटे, कभी लेकर फिरती अपनी लुटी अस्मत
अन्जान सा बनकर, मन वकील बस जिन्दगी को ढूंढे यहाँ वहां,
ये जिन्दगी है एक तितली, टिकती ये बस एक जगह कब कहाँ ?
==मन-वकील

Tuesday, April 3, 2012

जिन्दगी

इक फलसफ़ा सी है जिन्दगी, कोई पढ़ी अनपढ़ी किताब सी,
कभी कुछ जोड़ जाती, कभी घाटे में जाते कोई हिसाब जैसी,
जब कोई तन्हाइयों में अपनी जिन्दगी किया करे फनाह,
उथल पुथल सी मचाकर, बस मुसीबतें दिया करें बेपनाह,
कभी हाथों से सरक कर,रास्तों में आ बैठे रूठकर यूँ मुझसे ,
कभी हवाओं में उढने को होती, बस कुछ चिढकर यूँ मुझसे,
कहीं ख्वाबों को तलाशती फिरती, उम्मीदों के सिर पे चढ़कर
कभी सब्र की चादर ओढ़कर, पडी रहती आँखों में आंसू भरकर
कभी धुएं सी फ़ैल जाती, कभी घुटती कभी बस ये मचलती,
कभी पानी का एक झरना बन, घनघोर सी नीचे को फिसलती,
कभी बेसब्र सा इक बच्चा, खिलौनों की आस लगाए बस रहती,
कभी बोलती रहे बेसाख्ता,कभी गूंगी से चुपी लगाए बस रहती,
कहीं टटोलती है कुछ पत्थर, जो बेजान करते इसकी किस्मत,
कभी लुटेरों की बन ये लूटे, कभी लेकर फिरती अपनी लुटी अस्मत
अन्जान सा बनकर, मन वकील बस जिन्दगी को ढूंढे यहाँ वहां,
ये जिन्दगी है एक तितली, टिकती ये बस एक जगह कब कहाँ ?
==मन-वकील

हसरतें

ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,
सिलसिलें जो थे ग़मों के,वो सिलसिलेवार रहे आते जाते,
मैं मायूसियों में अपनी खुशियाँ टटोलता रहा बस आज तक,
कहने को वो थे अपने,पर दुश्मनी रहे हमसे युहीं निभाते,
खोने के डर से उनको, बस माफ़ करता रहा मैं अब तक,
ये सितम क्या कम थे, जो हमेशा रहे हम कमतर बनके,
मैं क्या उड़ता हवा में, बस पैरों तले जमीं न मिली अब तक
ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,

Sunday, March 25, 2012

गुमनाम शहीद!

लो अब बाँध दिए है मेरे दोनों हाथ,
और रस्सी का कसाव मेरे जोड़ो पर,
शायद साम्राज्यवाद कसना चाहते वो,
जो धीरे धीरे खोखला हो गया है अब ,
मेरे दोनों बाजूं पकड़ कर ले चले,
वो मेरे हम-वतन भाई उस ओर ऐसे,
जैसे नमक हलाली का सारा फर्ज़ ही,
चुकाना चाहते हो वो उन फिरंगियों का,
मैं भी तेज़ तेज़ क़दमों से डग भरता,
इस रोज़ रोज़ के मरने से चाहता मुक्ति,
शायद नए विद्रोह की आहट सुनाई देती,
या पुरानी बगावत अब फिर से जवाँ होती,
कहीं खामोशियों का सिलसिला टूटता हुआ,
और शोर का सैलाब है बस अब आने को,
सुबह सूरज से पहले, लेने आ गयी है ,
संग अपने लेने मुझे शहादत की परी,
जो मेरी रूह को चूम, ले जायेगी मुझे,
पर मेरे जाने से, भर जायेगी फिर से,
उस लहू में एक नयी तपिश सरगर्मी,
जोश उभरेगा और ले डूबेगा अपने साथ,
इन फिरंगियों के जलालत -ऐ-जुल्म,
और लूटेरगर्दी की वो गन्दी फितरत ,
बस सोच है जो अब समेट रही मुझे,
खौफ से दूर, मैं नयी दुनिया की ओर,
अपने कदम बढाता हुआ बस ऐसे ऐसे,
उन हाथों ने मुझे लाकर खड़ा कर दिया,
उस सर्द लकड़ी के तख्ते पर, नंगे पाँव
पर मेरे जोश की तपिश, सुलगा देगी,
इस निरीह लकड़ी में भी एक चिंगारी,
जो जलाकर खाक कर देगी शायद अभी,
इन फिरंगियों की बेसाख्ता हकुमत को,
तभी दो कांपते हाथ मेरे ही हमवतन के,
ढँक देते मेरे चेहरे को शहादत के कफ़न से,
जो कालिख समेटे हुए एक रोशनी देता हुआ,
रूह को मेरी, उस अनजानी डगर की राह पर,
अचानक गले में लिपट जाता मेरा नसीब ,
सख्त पटसन के नर्म रेशों से सहलाता हुआ,
और फिर कसाव और कसाव और कसाव ,
मैं पहले अँधेरे दर से गुजरता हुआ एकाएक,
आ मिलता उस शहादत की सफ़ेद डगर पर,
पीछे छोड़ गया हूँ अब मैं एक ऐसा इतिहास
जो मेरे मुल्क की आज़ादी की पहचान होगा,
शायद गुमनाम शहीदों में अब मेरा भी नाम होगा //////
==मन वकील

Tuesday, March 13, 2012

आत्ममंथन !

कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
ना जाने किसी बात पर अपने आप ही बेबात न हो जाऊं,
इस डर में बस अक्सर खुद को कमतर समझता हूँ मैं,
कभी रास्ते खोजते है मुझे, कभी मैं उन्हें खोजता रहता,
बस इस खोज की कशमकश में खुद को बदतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
रोशनी ने कभी भी आकर मेरे दामन को ठीक न पकड़ा,
बस अँधेरे में जीकर उसे अपना हमसफ़र समझता हूँ मैं,
मौसम की हर चोट मैंने आसमां बन खुद पर है झेली ,
अब तो अपने आप को अक्सर इक पत्थर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
मत बैठ मेरे पास कभी, वर्ना तू भी हो जायेगा इक अजाब,
हसरतों को देखेगा शीशे सा टूटते, ऐसा अक्सर समझता हूँ मैं,
मेरे सीने पर अब है उस वक्त की बेरहमियत के कई निशाँ,
अरे अपने आप को मैं, उस खुदा से बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
===मन-वकील

बदल दो!

मौसम की अज़ान बदल दो, हवाओं की भी तान बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
सन्नाटों के तीर क्यों हो सहते, गंदे नाले नदियों में क्यों बहते,
कटाक्ष यदि तुम सह ना पाओ, तो सहने की चौपान बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
बादल घटा घनघोर छाई है, धुओं में भी अब अग्नि आई है,
नर्म गर्म होकर क्यों रोना अब,खुद जलने के शमशान बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
वादों पर क्यों भरोसा अब करना,काहे जीवन में पल पल मरना,
तिल तिल घुट कर तुम क्या पाओगे, ये नित मरने के निशान बदल दो
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
बानी में अब नरमी कैसी तुम लाओ, यदि छीन कर जो तुम पाओ,
हाथ फैलाकर क्यों खड़े मांगते हक़, मार्ग में आये सब पाषाण बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
=मन-वकील

Thursday, March 8, 2012

होली आई रे

रंग बरसे चहु ओर, छटा निराली एहो छाई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई,
भर पिचकारी रंगों से,दोहु कर अपनों बहुराई
भिगो दियो गौरी, कंचुकी चोली झलक सबुराई,
ठन ठन चपल चलत, मुख गुलाल दे मसराई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई,
ढोल बजे सहु नगाड़े,बरसत जल बिन बदराई,
फागुन दियो पछाड़, विसार देब माघ एहो भाई,
नभ तापस लायो, धरा धूरि एहो लाल लभुराई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई,
नव प्रेयसी करत, ठिठोरी एहो चहकत सघुराई,
मुख चुम्बन धरत, रपटत आलिंगन मधुमाई,
तन कियो सुगन्धित, काम रति ज्यो मुग्धाई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई,
नमन सबहु इहा, जन मानस जग जसराई,
बसे सबरे जीवन, एहो रंग-सुगंध कण कनाई,
दीयो आसीस मन, तिस रहत सबै चित हर्षाई
खेलत बढ़त बट ज्यो, पाबे सम्पदा निध सौराई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई, 


--Man-Vakil

Friday, February 24, 2012

उभर पड़े मन के सब दोष!

रगड़ रगड़ पड़ती रही मन पर, उभर उभर पड़े मन के सब दोष,
सिमट सिमट गया मैं जब-तब, विषम बन गया हूँ लेकर सब रोष,
अंतहीन पीड़ा रहने लगी मन में,मृत होने लगा मन का सब जोश,
गहरी छाया थी पड़ी दुखों के, दिखने लगा सब महू बस दोषम दोष,
इसको छीलूं या उसको काटू, अत्याचार करूँ सब पर बन कुभोष,
सिमट सिमट गया मैं जब-तब, विषम बन गया हूँ लेकर सब रोष,
आशा की किरणों ने छोड़ा आना, अन्धकार ने छीना सर्व तेजोजोश,
व्यथित हो उठा अब मैं ज्वलित सा, अग्नि बानी में भरने लगी दोष,
यहाँ वहां बस कुलषित हो फिरता,बाँट रहा दूषित भावों से माह पोष,
सिमट सिमट गया मैं जब-तब, विषम बन गया हूँ लेकर सब रोष,
===मन-वकील

Friday, February 10, 2012

वक्त की पहचान कर

रखाकर तू हौंसले अब, सीने में डालकर इरादों का फौलाद,
दौर है कुछ ऐसा अब,जो आँखें दिखाती है अपनी ही औलाद,
वक्त की पहचान कर अब, जेहन को दिमाग से ऐसे जोड़कर,
कौन भौंक देगा खंज़र, तेरी पीठ में ऐसे ये झूठे नाते तोड़कर,
राहें होगी अनेक पर संग होंगें उनपर मुसीबतों के कई पत्थर,
चलना तो होगा युहीं इन्ही राहों पर, चाहे रोकर या फिर हसंकर,
सोच भी बदलेगी,जब देखेगा तू बदलती दुनिया की अजब रंगत,
अकेला बढ़ चलाचल जिन्दगी के काफिले में,न जोड़ कोई संगत,
गैरों ओ अपनों के फर्क में, रहेगी एक महीन सी लकीर यहाँ वहाँ,
ढूंढ़ले बस रोशनी डगर पर,खुशियाँ अब मिलती इस जहाँ में कहाँ,
सफ़र पूरा होते ही निकल, पहन कर ५ गज भर की सफ़ेद चादर,
लोग बस मिटटी में मिला देंगे,मिलता है बाद में मुरझाये फूलों से आदर ....
==मन-वकील

Sunday, January 15, 2012

दुनिया बस एक मुसाफिरखाना!

मैं हूँ बस मैं, अरे यहाँ मुझमें कोई और नहीं है,
आज का पल है ये, कोई और बीता दौर नहीं है,
यूँ आसमां से ही टूट कर गिरते है,सितारें यहाँ,
चाँद नहीं, बस यही फलसफा, कुछ और नहीं है,
मत रो कि गर्दिशों में घिरे रहने से आएगी हिम्मत,
बुरे वक्त में, इससे बड़ी उम्मीद कुछ और नहीं है,
मत सोच, कि यहाँ रहना है तुझे ताउम्र बाबस्ता,
दुनिया बस एक मुसाफिरखाना से बढ़कर कुछ और नहीं है ............
---मन-वकील ....

Sunday, January 8, 2012

ना जाने कहाँ, जाकर सो गया है भाग्य!

जतन से जतन, हिम्मत से हिम्मत तक,
राह की सब कठनाईयां,लांगने का हौसला,
महीन डोर से बंधी हुई, मन में एक आस सी,
पर ना जाने कहाँ, जाकर सो गया है भाग्य,
वेदना से आहत हुई, चेतना भीतर ही भीतर,
घुट घुट कर दम तोडती, पर होंठ सिये हुए,
असफलता से भारी हुआ, पल पल अहसास,
पर ना जाने कहाँ, जाकर सो गया है भाग्य,
कर्मों का पुनः पुनः, हिसाब करती जिन्दगी,
इस जन्म के थे, या फिर किये होंगे पूर्व में,
सवालों से घिरा हुआ, मैं उदासीनता समेटे,
पर ना जाने कहाँ, जाकर सो गया है भाग्य,
===मन वकील

Monday, January 2, 2012

दीवारों पर लिखी इबारत ....

दीवारों पर लिखी इबारत की तरह,
जिन्दगी अब रोज़ पढ़ी जाती है मेरी,
कई कई बार पोता गया है इस पर,
चूना किसी और की यादों से गीला,
ना जाने क्यों? उभर आती है बार बार,
लिखी हुए इबारत ये, झांकती सी हुई,
चंद छीटें जो कभी कभार आ गिरते,
बेरुखी से चबाये किसी पान के इस पर,
रंगत निखर आती इसमें दुखों की युहीं,
अरमानों की बुझी काली स्याही से लिखी,
आज भी बता देती ये मेरे भाग में बदा,
पानी से मिटने की चाह भी ना जाने अब,
चाहकर भी कही ना जाने कहाँ गम है,
बस दिखती है तो ये मेरी जिन्दगी ऐसे,
दीवारों पर लिखी इबारत की तरह युहीं ....
==मन वकील

जब लेखनी हो गयी उदास

जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
भावों की नैया रहे डगमगा,
मन के भीतर नहीं अहसास
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
संदूक में छुपा कर रखा है,
जो खेलता था कभी रास,
अवशेष है जैसे कोई राख,
ख़ामोशी लेती है मेरी सांस,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
कोनों में पड़े थे जो आंसू,
निकल करे लेते है अड़ास,
रोकने पर भी नहीं रुकते ये,
दिखलाकर पीड़ा की खटास,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
===मन वकील

५ गज भर की सफ़ेद चादर

रखाकर तू हौंसले अब, सीने में डालकर इरादों का फौलाद,
दौर है कुछ ऐसा अब,जो आँखें दिखाती है अपनी ही औलाद,
वक्त की पहचान कर अब, जेहन को दिमाग से ऐसे जोड़कर,
कौन भौंक देगा खंज़र, तेरी पीठ में ऐसे ये झूठे नाते तोड़कर,
राहें होगी अनेक पर संग होंगें उनपर मुसीबतों के कई पत्थर,
चलना तो होगा युहीं इन्ही राहों पर, चाहे रोकर या फिर हसंकर,
सोच भी बदलेगी,जब देखेगा तू बदलती दुनिया की अजब रंगत,
अकेला बढ़ चलाचल जिन्दगी के काफिले में,न जोड़ कोई संगत,
गैरों ओ अपनों के फर्क में, रहेगी एक महीन सी लकीर यहाँ वहाँ,
ढूंढ़ले बस रोशनी डगर पर,खुशियाँ अब मिलती इस जहाँ में कहाँ,
सफ़र पूरा होते ही निकल, पहन कर ५ गज भर की सफ़ेद चादर,
लोग बस मिटटी में मिला देंगे,मिलता है बाद में मुरझाये फूलों से आदर ....
==मन-वकील