Friday, February 24, 2012

उभर पड़े मन के सब दोष!

रगड़ रगड़ पड़ती रही मन पर, उभर उभर पड़े मन के सब दोष,
सिमट सिमट गया मैं जब-तब, विषम बन गया हूँ लेकर सब रोष,
अंतहीन पीड़ा रहने लगी मन में,मृत होने लगा मन का सब जोश,
गहरी छाया थी पड़ी दुखों के, दिखने लगा सब महू बस दोषम दोष,
इसको छीलूं या उसको काटू, अत्याचार करूँ सब पर बन कुभोष,
सिमट सिमट गया मैं जब-तब, विषम बन गया हूँ लेकर सब रोष,
आशा की किरणों ने छोड़ा आना, अन्धकार ने छीना सर्व तेजोजोश,
व्यथित हो उठा अब मैं ज्वलित सा, अग्नि बानी में भरने लगी दोष,
यहाँ वहां बस कुलषित हो फिरता,बाँट रहा दूषित भावों से माह पोष,
सिमट सिमट गया मैं जब-तब, विषम बन गया हूँ लेकर सब रोष,
===मन-वकील

No comments:

Post a Comment

Thank you for providing your valuable feedback on the Blog..

A Thought:We spend almost 1000 Rupees per month on our unneeded Luxury items (cigarettes,perfumes,deodorants,hair cuts etc) but can't we spare only 600 rupees per month to educate a child???..Just think once and visit the website http://www.worldvision.in/ to contribute now!!