Tuesday, March 13, 2012

आत्ममंथन !

कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
ना जाने किसी बात पर अपने आप ही बेबात न हो जाऊं,
इस डर में बस अक्सर खुद को कमतर समझता हूँ मैं,
कभी रास्ते खोजते है मुझे, कभी मैं उन्हें खोजता रहता,
बस इस खोज की कशमकश में खुद को बदतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
रोशनी ने कभी भी आकर मेरे दामन को ठीक न पकड़ा,
बस अँधेरे में जीकर उसे अपना हमसफ़र समझता हूँ मैं,
मौसम की हर चोट मैंने आसमां बन खुद पर है झेली ,
अब तो अपने आप को अक्सर इक पत्थर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
मत बैठ मेरे पास कभी, वर्ना तू भी हो जायेगा इक अजाब,
हसरतों को देखेगा शीशे सा टूटते, ऐसा अक्सर समझता हूँ मैं,
मेरे सीने पर अब है उस वक्त की बेरहमियत के कई निशाँ,
अरे अपने आप को मैं, उस खुदा से बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
===मन-वकील

बदल दो!

मौसम की अज़ान बदल दो, हवाओं की भी तान बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
सन्नाटों के तीर क्यों हो सहते, गंदे नाले नदियों में क्यों बहते,
कटाक्ष यदि तुम सह ना पाओ, तो सहने की चौपान बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
बादल घटा घनघोर छाई है, धुओं में भी अब अग्नि आई है,
नर्म गर्म होकर क्यों रोना अब,खुद जलने के शमशान बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
वादों पर क्यों भरोसा अब करना,काहे जीवन में पल पल मरना,
तिल तिल घुट कर तुम क्या पाओगे, ये नित मरने के निशान बदल दो
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
बानी में अब नरमी कैसी तुम लाओ, यदि छीन कर जो तुम पाओ,
हाथ फैलाकर क्यों खड़े मांगते हक़, मार्ग में आये सब पाषाण बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
=मन-वकील