Thursday, May 26, 2011

याद तो कर!!!

हम भी ढूंढ कर लाते है तेरे लिए लफ़्ज़ों के गुलाब,
बस तू है के पढ़ती नहीं कभी मेरे दिल की किताब,
जिसने बोला बस तू चल देती है उठकर उसके संग,
हम परेशान हो जाते है देख कर तेरे ये बदले से ढंग,
बयां कर भी नहीं पाते, बस आँखों से उदास हो लेते,
मन के हर रंज को , हम अपने ही आंसुओं से धो लेते,
शिकवा कैसे करें, क्यों कर करे भला,हम अब तुम से,
जुबान पर जड़ दिए है ताले, हो गए है हम गुमसुम से,
रौशनी में भी बैठकर भी अंधेरों में अब हम है अब जीते,
और पीते होंगे गम भुलाने को,हम तुझे याद करने को पीते,
तू अगर है ज़बर, तो हम भी जबरदस्त कम तो नहीं,
तू रूठ भी जाए, तो तेरे जाने कोई अब गम तो नहीं,
अरे मत देख, तू मन-वकील के चेहरे पर छाये हुए गम,
देख स्याह होती अपनी शख्सियत को,अब हरपल हरदम,
कैसे गुजरे थे हम तेरी राहों से ऐसे कभी, तू ये याद तो कर,
बैचेन हम नहीं,जितना तू रोई मेरे जाने पर तू ये याद तो कर,
अरे हम है मन-वकील , सदा करे मन से अपने हर बात,
और चाहे कितने खेल खेलें हमसे, पर हम हार कर भी जीतें,
चाहे कोई डाले हमारे दिल पे जितनी भी लकीरे, सितमगर सा,
हम है जो मुहं से उफ़ तक न करते,कभी उन जख्मों को ना सीते,
======मन-वकील

Wednesday, May 25, 2011

हाय राम अब क्या होगा!

जनता बड़ी अनाड़ी,
पहन रखी है साड़ी,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता शासक चुनती है,
चुन कर मूरख बनती है,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता मंहगाई सहती है,
नव-वधू-सी चुप रहती है,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता जनता को छलती है,
छोटी मछली को बड़ी निगलती है,
हाय राम अब क्या होगा!

नेता कुर्सी पकड़ते हैं,
अफसर खूब अकड़ते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

मूरख आगे बढ़ते हैं,
सज्जन पीछे हटते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

चमचे आँख दिखाते हैं,
अपनी धौंस जमाते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

सत्य छिपा जाता है,
झूठ उमड़ता आता है,
फिर भी हम कहते हैँ,
सत्यमेव जयते!

हाय राम अब क्या होगा!

संसद का पाजामा

Sheena Contributes again
ऋषियों ने, मुनियों ने सोचा,
क्यों न करें हम सम्मेलन,
ऋषियों-मुनियों का बहुमत है,
क्यों न करें फिर आन्दोलन।

मुनि-मण्डल के मंत्री नारद,
संयोजक थे सम्मेलन के ,
दुर्वासा लीडर बन बैठे,
महा उग्र आन्दोलन के।

अध्यक्ष व्यास ने शौनक को,
अपना एडीकांग बनाया,
सबने छाना सरस सोमरस,
शून्य काल में शोर मचाया।

पाराशर-सत्यवती-नन्दन,
व्यास दलित के रक्षक थे,
ब्राह्मण-धीवर की सन्तति वे
शेड्यूल कॉस्ट के अग्रज थे।

आरक्षण का प्रस्ताव रखा,
सूत महामुनि ने हँस कर,
स्वीकार किया ऋषि-मुनियों ने,
बहुमत के चक्कर में फँस कर।

अगला प्रस्ताव किया पारित,
साधु-सन्त को त्याग दिया,
साधू साधक हैं, सिद्ध नहीं,
सन्तों ने सबका अन्त किया।

इस पर सम्मेलन में शोर हुआ,
उग्र प्रचण्ड मचा हंगामा,
देख उसे ढीला हो जाता,
संसद का पाजामा।

Monday, May 23, 2011

"मैं था या तुम थी स्वछंद ?"

"मैं था या तुम थी स्वछंद ?"

कहो मैं था या तुम थी स्वछंद ?
जो विचारों से उन्मुक्त हो बहती,
जिसे बंधन का कोई आभास नहीं,
यौन या मन का कोई भी, और कभी
कोई बंधन नहीं बाँध पाया तुम्हे, कभी,
अरे, हो तुम बहती हुई एक नदी सी,
जब मैं आया था जीवन में तुम्हारे,
बनकर उस बहती नदी के दो किनारे,
कुछ देर रही तक तुम उनमे सिमटी,
बहती मंद मंद सी, रही मुझसे लिपटी,
फिर भावों में आये अचानक तुम्हारे,
कुछ ऐसे तीव्रता के अनोखे से बहु तंत,
और तुम लांग गयी उन्ही किनारों को,
नदी सी नयी भूमि ग्रहण करने, बिना अंत,
मैं भी संग बह गया था,टूटते किनारों सा,
परन्तु रोक न पाया मैं, तुम्हारी वो गति
कैसा रोक पाता, वो तुम्हारी यौन उन्मुक्तता,
वो स्वतंत्र होने को उद्धत सी,व्याकुल मति,
तुमने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा मुझे कभी,
मैं कहाँ से टुटा कहाँ बहा, सुध न ली कभी
रहा नियमों से परे, खुले व्योम सा आचार,
मैं चाहकर भी न कर सका, कभी प्रतिकार,
और अब जब वापिस आयी तुम बहने फिर,
उसी पथ उसी राह से, जैसे होकर पुनः सिधिर,
अब पूछती हो मुझसे, करती क्यों हो द्वन्द,
कहो प्रिये मैं था या तुम थी स्वछंद ?
====मन वकील