Tuesday, April 3, 2012

जिन्दगी

इक फलसफ़ा सी है जिन्दगी, कोई पढ़ी अनपढ़ी किताब सी,
कभी कुछ जोड़ जाती, कभी घाटे में जाते कोई हिसाब जैसी,
जब कोई तन्हाइयों में अपनी जिन्दगी किया करे फनाह,
उथल पुथल सी मचाकर, बस मुसीबतें दिया करें बेपनाह,
कभी हाथों से सरक कर,रास्तों में आ बैठे रूठकर यूँ मुझसे ,
कभी हवाओं में उढने को होती, बस कुछ चिढकर यूँ मुझसे,
कहीं ख्वाबों को तलाशती फिरती, उम्मीदों के सिर पे चढ़कर
कभी सब्र की चादर ओढ़कर, पडी रहती आँखों में आंसू भरकर
कभी धुएं सी फ़ैल जाती, कभी घुटती कभी बस ये मचलती,
कभी पानी का एक झरना बन, घनघोर सी नीचे को फिसलती,
कभी बेसब्र सा इक बच्चा, खिलौनों की आस लगाए बस रहती,
कभी बोलती रहे बेसाख्ता,कभी गूंगी से चुपी लगाए बस रहती,
कहीं टटोलती है कुछ पत्थर, जो बेजान करते इसकी किस्मत,
कभी लुटेरों की बन ये लूटे, कभी लेकर फिरती अपनी लुटी अस्मत
अन्जान सा बनकर, मन वकील बस जिन्दगी को ढूंढे यहाँ वहां,
ये जिन्दगी है एक तितली, टिकती ये बस एक जगह कब कहाँ ?
==मन-वकील

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