Monday, May 16, 2011

अहिस्ता अहिस्ता:

The first poem for this cause from Man-Vakil

अहिस्ता अहिस्ता देश मेरा कुछ घटता सा जाता है,
और जनता के दिल का बोझ अब बढ़ता ही जाता है,
गुमनामी के अंधेरों से भी उठती है अनबुझी तस्वीरें,
कोई आकर, मुझमे मरी क्रांति सा जुड़ता जाता है,
और सिक्के भी अब तो पड़े रहते है इन सड़कों पे,
पर मेरी जेब में पड़ा यह नोट भी सड़ता जाता है,
अरे रोशनी के अम्बार लगे है अब उन चेहरों पे,
पेट की भूख के आगे, इनका तन बिकता जाता है,
कुर्तें पजामे,टोपी वालों से अब डर लगता है भाई,
सरकारी खजाने के भण्डार भी रोज़ घटता जाता है,
सेंध लगती है मंत्रालयों में, अब तो दिन के उजालों में,
कुर्सी से चिपके इन चोरों का हजूम भी बढ़ता जाता है
भूख से बिलकते बच्चे, चौराहों पर बिकते है रोज़ रोज़,
और योजनाओं से बाबू के घर का सामान बढ़ता जाता है,
अरे, आयोजन अब बन गए है प्रयोजन के नए उपाय,
खद्दरदारियों की पूंजी से अब खेत मेरा उजड़ता जाता है,
फौजी लड़े अब सीमा पर, पर घर में लुट जाए परिवार,
उसके मरने के दाम से, एक कांसे का पदक खरीदा जाता है,
अरे कागज के पुरूस्कार है बांटे जाते,सत्ता के गलियारों में,
हर चापलूस का, अब पद्म-अलंकारों से सत्कार किया जाता है...
अहिस्ता अहिस्ता देश मेरा कुछ घटता सा जाता है,
और जनता के दिल का बोझ अब बढ़ता ही जाता है.

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