Tuesday, May 17, 2011

भटकाव

भटकाव प्रिये , है जीवन का ही एक दूसरा नाम ,
जो न भटका कभी, वो शायद रहा निर्जीव सा सदा,
बहते जल, छितराते बादल , सभी रहते भटकते,
गति मंद हो या हो तेज , भटकाव रहता जीवन में,
भटकाव का अन्तः नहीं होता कभी मंजिल पर,
केवल वितृष्णा या तृष्णा का जाल सा रहता भीतर,
जो मजबूर कर देता सदैव , औड़ने को नए नए मुखौटें,
केवल आस के भरने , कुछ खाली हो चुके मनसा बर्तन,
एक साथी की तलाश , हमेशा अग्रसित करती रहती मुझे,
भटकाव भरी राह पर चलने को , बदल बदल ये मुखौटें,
अंधेरों के दौर आते, और बह जाते उजालों के शोर में,
और ये उजालें भी बदल जाते अक्सर, नए अंधेरों में,
बिखराव होता यदि मन का, पर मैं ना टूटता कभी भी,
केवल बहता रहता उसी समय के अविरल दरिया में ,
और पकडे हुए केवल अपनी उम्मीदों की डोर ह्रदय से ,
धोखे , विरह, मिलन या अवसाद , सब वाष्पित होते हुए,
छूते रहते मुझे एक के बाद एक, अक्सर , घटना क्रम में,
और मैं कभी भी मंद नहीं पड़ता , अपने उस भटकाव में.....
-....मन-वकील

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