Friday, October 26, 2012

क्यों मर गया अब मेरा देश??

जाकर समन्दर के किनारों से कह दो,
गिरते झरनों के सफ़ेद धारों से कह दो,
कह दो जाकर बहती नदियों के जल से,
जोर से कहो जाकर हवा की हलचल से,
ऊँचे पहाड़ों में जाकर कर दो तुम ऐलान,
जरा चीखों ऐसे, जो सुन ले बहरे मकान,
कुदरत के हर जर्रे में फैलाओ यह खबर,
अब इस मुल्क में बेईमान हुआ हर बशर,
खजानों में करे क्योकर हम अब पहरेदारी,
लूटमारी करती फिरे अब सरकार हमारी,
बाशिंदों के मुहँ पर जड़े अब सख्त से ताले,
गरीबी रहे हर जगह रोती,छीन गये निवाले,
बेरोज़गारी पर अब चढ़े जाए रंग सिफारिश,
अब कहाँ बरसती है मेरे खेतों पर वो बारिश,
मैं गर खोलता जुबाँ, तो बनते पुलिसिया केस,
मैं बैठा रोता हूँ, क्यों मर गया अब मेरा देश ..........
==मन वकील

मेरा गाँव!

धरातल से ऊपर मेरे पाँव है,
कहीं छुप गया वो मेरा गाँव है,
कभी बादलों से घिरा रहता था,
कभी हवाओं का जोर सहता था,
पेड़ों की डालियों पर थे पत्ते हरे,
खेत थे खलियान भी थे सब भरे,
लोगों की महफ़िल थी शोर था,
खुश थे सब ना कोई कमज़ोर था,
वजह थी वहीँ न बेवजह था कोई,
रातें थी चांदनी पर,रहती वो सोई,
कहाँ सब जा बसे अब कहाँ गाँव है
कहीं छुप गया वो मेरा गाँव है,
राह थी चलती, जो लोग चलते,
वहीँ जानवर दोस्तों से थे पलते,
सब नज़दीक था मंदिर भी वहीँ,
पाठशाला की घंटी से हिलती जमीं,
बच्चे थे संग थे खेल कंचे और हाकी,
सभी एक से एक, ना कमी थी बाकी,
बस एक दिन कोई धुंआ आ गया,
मेरे गाँव के सब खेत ही वो खा गया,
अब बस दौड़ते है मजबूरी के पाँव
कहीं गुम हो गया वो मेरा गाँव,
==मन-वकील

कितने रावण ?

कितने रावण मारोगे अब तुम राम?
हर वर्ष खड़े हो जाते शीश उठाकर,
यहाँ वहाँ, हर स्थान पर पुनः पुनः,
कभी रूप धरते वो भ्रष्टाचार बनकर
कभी अत्याचार किसी निरीह पर,
कहीं बिलखते बच्चे की भूख बनकर,
अक्सर महंगाई का विकराल रूप धर,
कहीं धर्मांध आतंक के चोला पहनकर,
कभी किसी महिला के कातिल बनकर,
कभी कसाब तो कभी दौउद बन बनकर
कभी मिलते राहों में कोई नेता बनकर,
अब नहीं दशानन वो है वो शतकानन,
मिलते है वो बनकर अब तो सह्स्त्रानन,
बस कलियुग में ही होते ऐसे अधर्मी काम,
कितने रावण मारोगे अब तुम राम?
==मन वकील

Saturday, September 8, 2012

"खोया हुआ नसीब"

"खोया हुआ नसीब"
बुढ़िया की मोतियाबिंद से सजी आँखों में,
कम दिखाई देती परछाइयों को समेटे हुए,
जिन्हें कल संजोये थी अपनी खोख में वो,
जिन्हें खिलाती रही थी अपना भी निवाला,
वो आज कहाँ जा बसे,अब क्यों नहीं करीब,
धुंधली धुंधली लकीरों सा,खोया हुआ नसीब,
कूड़े के ढेर पर बैठे कुक्कर के संग वो नन्हे,
नन्हे हाथों से बीनते थे कागज़ के चीथड़े वो,
वो चंद चीथड़े भी आज है उनके तन पर भी,
चेहरे पर छपी मासूमियत भी होती ओझल,
शक्ल पर अब बेबसी है जो आ बैठी करीब,
बदबू से लिपटे मासूमो का, खोया हुआ नसीब,
कभी भागती रहती यहाँ से वहां हो बदहवास,
कभी चंद लिखे मुड़े से वो कागज़ मुठ्ठी में,
कभी आँखों में उभर आती बेबसी बन भूख,
जो छोड़ चला गया ऐसे, घेरती अब उसे धूप,
बड़े बाबू की वो भूखी नज़रें,क्यों लगती करीब,
क्यों जिन्दा है वो सोचती, खोया हुआ नसीब ...
==मन वकील

Sunday, July 15, 2012

बोल बम!

पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
हाथ में थामे कावंड, चाह नहीं अब कुछ और,
मन सुमरे शिव नाम,होए रहा "बोल बम" शोर,
थिरके पग राह पर,जो नाचे मयूर सह घनघोर,
अरे, शिव की ऐसी मन में लौ है उसने जगाई,
भूला सुध बुध, पड़े नीलकंठ की राह दिखाई,
जोर जोर से वो भागे,अपने घर को पीछे छोड़
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
सावन लाये संग अपने वो कैसी पावन बेला,
शिव बसे मन, चले जोगी पथ पर ना अकेला,
कावंडमय हुआ नगर,चले शिव भक्तों का जोर,
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
जन देख रहे अचरज में, कैसी शिव की भक्ति,
पग में चाहे पड़े छाले, पर मन में घटे ना शक्ति,
अरे, कैसी दुविधा,चले ना कोई पीड़ा का जोर,
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
मन में धरे जोगी अपने, केवल एको बिचार,
शिव मेरे त्रिलोकपति, आन करेंगे मेरा उद्धार,
गंगाजल डाल शिवलिंग पर,थमा दूँ मन की डोर,
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
मन सुमरे शिव नाम,होए रहा "बोल बम" शोर,
थिरके पग राह पर,जो नाचे मयूर सह घनघोर,
==मन वकील

Sunday, June 17, 2012

होड़

आज चोरों डकैतों में अपना सिरमौर,
चुनने के लिए जबरदस्त होड़ पड़ी है,
तभी संसद के कैंटीन वाला कहता है,
आजकल संसद में बेसिज़न भीड़ बढ़ी है,
जो बनाए रहते थे कभी अपने अपने दल,
अपने मुद्दे की आड़ में करते थे हलचल,
कल तक जो बकते इक दूजे को गालियाँ,
अब गलबहियां डाल पीटते वो तालियाँ,
उन दलबदलुओं में जुड़ने की चाह बढ़ी है,
आज चोरों डकैतों में अपना सिरमौर,
चुनने के लिए जबरदस्त होड़ पड़ी है,
सब के सब चाहते बस इक रबड़ की मोहर,
जो बस अंगूठा टेकें, बने ना उनका शौहर,
जो उनके भेजे विधेयकों पर उठाए ना सवाल,
कौन कहाँ गवर्नर बने, रखें ना इसका ख्याल,
बस ऐसे एक जमुरें को जमुरियत सौपने की पड़ी है,
आज चोरों डकैतों में अपना सिरमौर,
चुनने के लिए जबरदस्त होड़ पड़ी है,
==मन वकील

Tuesday, June 12, 2012

जेंटल मेन

वो है क्रिकेट का भी असली जेंटल मेन,
सौम्य सरल पारंगत,जो कहते सब फैन,
नित नए रिकार्ड रचे लगाये नित शतक,
हर गेंद को सहज ही खेले,पारी होने तक,
यदि आउट होय, तो भी रहता वो शांत,
प्रशंसा करते सब, कपिल हो या श्रीकांत,
ब्रेडमैन से करते,देसी बिदेसी उसका मेल,
अलग शान से, अलग ढंग से खेले वो खेल,
तभी राजनीतिज्ञों ने बुला उसका पूछा हाल,
राज्यसभा में नामित कर,फेंका मायाजाल,
करने सुशोभित उसकी विधा,भेजा शाहीपत
आओ प्यारे संग बैठो हमारे,लेकर एक शपथ
झटपट ही कर डाला,संसद में उसका टीका,
अखबारों में जोरदार छपा,पर लगता था फीका,
फिर किया सरकार ने, उस प्यारे पर अहसान,
युवराज़ के पास बंगला अलोटकर,बढाई शान,
पर वो प्यारा था सचमुच सच्चा सहज सरल,
झट मना किया,रहने को वो बंगला अविरल,
राज्यसभा में आया अब,इक असल जेंटलमेन,
जो सत्ता के भूखों से अलग चल, करें उन्हें बैचैन ...........
=========मन वकील

Friday, May 11, 2012

क्यों मार दिया मुझे बापू?

जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
आज पड़ोस की बिट्टो को डाक्टर,
बनते देख,क्यों फूट फूट रोते हो बापू,
शर्मा जी के आँगन में फैली हुई, वो,
राखी पर खुशियों की सतरंगी चादर,
भाइयों के हाथो पर बंधते पवित्र धागे,
अब क्यों सांप लोट रहा छाती पर, बापू,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
रहमान चाचा को जाते देख,बेटी संग,
अपनी साइकिल पर बैठकर, स्कूल को,
बहुत हसरतों से आँखों में नमी लाते, बापू,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
गुप्ता जी की बेटी की बिधाई के मौके पर,
माँ को थाम कर बहुत रोते रहे,झरने से,
और कहते रहे, अगर आज मैं होती, तो,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
जब भैया ने पकड़ तुम्हारा वो हाथ, ऐसे,
मरोड़ दिया था, तुम्हारे बाप होने का गरूर,
तब आसमान की ओर मुहं करके, बहुत रोये
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
अब जब तक रहोगे, इस धरती पर,
रहोगे सदा कोसते खुद को, दिन भर
संग में रुलाओगे माँ को भी, मुझे याद कर,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
=मन- वकील

Saturday, April 14, 2012

देश मेरा है बेसहारा!

सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा
राहगीरों को लुटने वाले डाकू कहाँ हो गए गुम,
सांसद बन अब उन्हें सड़कों पे लूटना नहीं गंवारा,
जनता के पैसे से अब वो जनता को ही रौन्धतें,
देश को अब कौन कृष्ण आकर देगा सहारा,
शोर मत करों अब यहाँ नहीं होगी कोई क्रांति,
अब तो मौनव्रत करने पे लगती है १४४ की धारा,
सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा
खेल संगठनों के पदों पर काबिज़ है बेशर्म बेखिलाड़ी,
कौन बनेगा यहाँ मिल्खा या ध्यानचंद दुबारा,
गुब्बारों के नाम पर उड़ा देते है जनता का धन,
बेशर्म ये बाबू घुमने चले जाते है लन्दन या बुखारा,
विकास शब्द अब रह गया है इक नारा बनकर,
ज्ञान और शिक्षा को अब आरक्षण ने है मारा
सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा,
बांटकर खाते है धर्मं और जातियों में हमें, ये नेता,
चरित्र व् राज धर्म से नहीं होता अब इनका गुज़ारा ,
वोट की अब कीमत झुग्गियों में अब खूब है बंटती,
दारु हो या कम्बल, बटन दबवाते है कई-२ हजारा,
बहु बेटियों के नाम पर बंटती है खूब वजीफों के रकम,
राह चलते उन्हें लुटते, संग पुलिस लेती है चटखारा,
सभी आसरे से दूर आज मेरा देश है बेसहारा
अब भ्रष्टाचारियों ने इसे कालिख से है संवारा ...
==मन वकील

Sunday, April 8, 2012

अब तक!

ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,
सिलसिलें जो थे ग़मों के,वो सिलसिलेवार रहे आते जाते,
मैं मायूसियों में अपनी खुशियाँ टटोलता रहा बस आज तक,
कहने को वो थे अपने,पर दुश्मनी रहे हमसे युहीं निभाते,
खोने के डर से उनको, बस माफ़ करता रहा मैं अब तक,
ये सितम क्या कम थे, जो हमेशा रहे हम कमतर बनके,
मैं क्या उड़ता हवा में, बस पैरों तले जमीं न मिली अब तक
ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,
=मन वकील

जिन्दगी को ढूंढे यहाँ वहां!

इक फलसफ़ा सी है जिन्दगी, कोई पढ़ी अनपढ़ी किताब सी,
कभी कुछ जोड़ जाती, कभी घाटे में जाते कोई हिसाब जैसी,
जब कोई तन्हाइयों में अपनी जिन्दगी किया करे फनाह,
उथल पुथल सी मचाकर, बस मुसीबतें दिया करें बेपनाह,
कभी हाथों से सरक कर,रास्तों में आ बैठे रूठकर यूँ मुझसे ,
कभी हवाओं में उढने को होती, बस कुछ चिढकर यूँ मुझसे,
कहीं ख्वाबों को तलाशती फिरती, उम्मीदों के सिर पे चढ़कर
कभी सब्र की चादर ओढ़कर, पडी रहती आँखों में आंसू भरकर
कभी धुएं सी फ़ैल जाती, कभी घुटती कभी बस ये मचलती,
कभी पानी का एक झरना बन, घनघोर सी नीचे को फिसलती,
कभी बेसब्र सा इक बच्चा, खिलौनों की आस लगाए बस रहती,
कभी बोलती रहे बेसाख्ता,कभी गूंगी से चुपी लगाए बस रहती,
कहीं टटोलती है कुछ पत्थर, जो बेजान करते इसकी किस्मत,
कभी लुटेरों की बन ये लूटे, कभी लेकर फिरती अपनी लुटी अस्मत
अन्जान सा बनकर, मन वकील बस जिन्दगी को ढूंढे यहाँ वहां,
ये जिन्दगी है एक तितली, टिकती ये बस एक जगह कब कहाँ ?
==मन-वकील

Tuesday, April 3, 2012

जिन्दगी

इक फलसफ़ा सी है जिन्दगी, कोई पढ़ी अनपढ़ी किताब सी,
कभी कुछ जोड़ जाती, कभी घाटे में जाते कोई हिसाब जैसी,
जब कोई तन्हाइयों में अपनी जिन्दगी किया करे फनाह,
उथल पुथल सी मचाकर, बस मुसीबतें दिया करें बेपनाह,
कभी हाथों से सरक कर,रास्तों में आ बैठे रूठकर यूँ मुझसे ,
कभी हवाओं में उढने को होती, बस कुछ चिढकर यूँ मुझसे,
कहीं ख्वाबों को तलाशती फिरती, उम्मीदों के सिर पे चढ़कर
कभी सब्र की चादर ओढ़कर, पडी रहती आँखों में आंसू भरकर
कभी धुएं सी फ़ैल जाती, कभी घुटती कभी बस ये मचलती,
कभी पानी का एक झरना बन, घनघोर सी नीचे को फिसलती,
कभी बेसब्र सा इक बच्चा, खिलौनों की आस लगाए बस रहती,
कभी बोलती रहे बेसाख्ता,कभी गूंगी से चुपी लगाए बस रहती,
कहीं टटोलती है कुछ पत्थर, जो बेजान करते इसकी किस्मत,
कभी लुटेरों की बन ये लूटे, कभी लेकर फिरती अपनी लुटी अस्मत
अन्जान सा बनकर, मन वकील बस जिन्दगी को ढूंढे यहाँ वहां,
ये जिन्दगी है एक तितली, टिकती ये बस एक जगह कब कहाँ ?
==मन-वकील

हसरतें

ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,
सिलसिलें जो थे ग़मों के,वो सिलसिलेवार रहे आते जाते,
मैं मायूसियों में अपनी खुशियाँ टटोलता रहा बस आज तक,
कहने को वो थे अपने,पर दुश्मनी रहे हमसे युहीं निभाते,
खोने के डर से उनको, बस माफ़ करता रहा मैं अब तक,
ये सितम क्या कम थे, जो हमेशा रहे हम कमतर बनके,
मैं क्या उड़ता हवा में, बस पैरों तले जमीं न मिली अब तक
ठहराव का इक ठिकाना, मेरे भीतर नहीं है आज तक,
मैं किश्तियों को खेता रहा, अपनी हसरतों की आज तक,

Sunday, March 25, 2012

गुमनाम शहीद!

लो अब बाँध दिए है मेरे दोनों हाथ,
और रस्सी का कसाव मेरे जोड़ो पर,
शायद साम्राज्यवाद कसना चाहते वो,
जो धीरे धीरे खोखला हो गया है अब ,
मेरे दोनों बाजूं पकड़ कर ले चले,
वो मेरे हम-वतन भाई उस ओर ऐसे,
जैसे नमक हलाली का सारा फर्ज़ ही,
चुकाना चाहते हो वो उन फिरंगियों का,
मैं भी तेज़ तेज़ क़दमों से डग भरता,
इस रोज़ रोज़ के मरने से चाहता मुक्ति,
शायद नए विद्रोह की आहट सुनाई देती,
या पुरानी बगावत अब फिर से जवाँ होती,
कहीं खामोशियों का सिलसिला टूटता हुआ,
और शोर का सैलाब है बस अब आने को,
सुबह सूरज से पहले, लेने आ गयी है ,
संग अपने लेने मुझे शहादत की परी,
जो मेरी रूह को चूम, ले जायेगी मुझे,
पर मेरे जाने से, भर जायेगी फिर से,
उस लहू में एक नयी तपिश सरगर्मी,
जोश उभरेगा और ले डूबेगा अपने साथ,
इन फिरंगियों के जलालत -ऐ-जुल्म,
और लूटेरगर्दी की वो गन्दी फितरत ,
बस सोच है जो अब समेट रही मुझे,
खौफ से दूर, मैं नयी दुनिया की ओर,
अपने कदम बढाता हुआ बस ऐसे ऐसे,
उन हाथों ने मुझे लाकर खड़ा कर दिया,
उस सर्द लकड़ी के तख्ते पर, नंगे पाँव
पर मेरे जोश की तपिश, सुलगा देगी,
इस निरीह लकड़ी में भी एक चिंगारी,
जो जलाकर खाक कर देगी शायद अभी,
इन फिरंगियों की बेसाख्ता हकुमत को,
तभी दो कांपते हाथ मेरे ही हमवतन के,
ढँक देते मेरे चेहरे को शहादत के कफ़न से,
जो कालिख समेटे हुए एक रोशनी देता हुआ,
रूह को मेरी, उस अनजानी डगर की राह पर,
अचानक गले में लिपट जाता मेरा नसीब ,
सख्त पटसन के नर्म रेशों से सहलाता हुआ,
और फिर कसाव और कसाव और कसाव ,
मैं पहले अँधेरे दर से गुजरता हुआ एकाएक,
आ मिलता उस शहादत की सफ़ेद डगर पर,
पीछे छोड़ गया हूँ अब मैं एक ऐसा इतिहास
जो मेरे मुल्क की आज़ादी की पहचान होगा,
शायद गुमनाम शहीदों में अब मेरा भी नाम होगा //////
==मन वकील

Tuesday, March 13, 2012

आत्ममंथन !

कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
ना जाने किसी बात पर अपने आप ही बेबात न हो जाऊं,
इस डर में बस अक्सर खुद को कमतर समझता हूँ मैं,
कभी रास्ते खोजते है मुझे, कभी मैं उन्हें खोजता रहता,
बस इस खोज की कशमकश में खुद को बदतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
रोशनी ने कभी भी आकर मेरे दामन को ठीक न पकड़ा,
बस अँधेरे में जीकर उसे अपना हमसफ़र समझता हूँ मैं,
मौसम की हर चोट मैंने आसमां बन खुद पर है झेली ,
अब तो अपने आप को अक्सर इक पत्थर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
मत बैठ मेरे पास कभी, वर्ना तू भी हो जायेगा इक अजाब,
हसरतों को देखेगा शीशे सा टूटते, ऐसा अक्सर समझता हूँ मैं,
मेरे सीने पर अब है उस वक्त की बेरहमियत के कई निशाँ,
अरे अपने आप को मैं, उस खुदा से बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस चुपचाप रहना बेहतर समझता हूँ मैं,
कभी कभी बस खुद से ही कहना बेहतर समझता हूँ मैं,
===मन-वकील

बदल दो!

मौसम की अज़ान बदल दो, हवाओं की भी तान बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
सन्नाटों के तीर क्यों हो सहते, गंदे नाले नदियों में क्यों बहते,
कटाक्ष यदि तुम सह ना पाओ, तो सहने की चौपान बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
बादल घटा घनघोर छाई है, धुओं में भी अब अग्नि आई है,
नर्म गर्म होकर क्यों रोना अब,खुद जलने के शमशान बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
वादों पर क्यों भरोसा अब करना,काहे जीवन में पल पल मरना,
तिल तिल घुट कर तुम क्या पाओगे, ये नित मरने के निशान बदल दो
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
बानी में अब नरमी कैसी तुम लाओ, यदि छीन कर जो तुम पाओ,
हाथ फैलाकर क्यों खड़े मांगते हक़, मार्ग में आये सब पाषाण बदल दो,
नहीं बदल सकते औरों को, तो खुद की ही पहचान बदल दो,
=मन-वकील

Thursday, March 8, 2012

होली आई रे

रंग बरसे चहु ओर, छटा निराली एहो छाई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई,
भर पिचकारी रंगों से,दोहु कर अपनों बहुराई
भिगो दियो गौरी, कंचुकी चोली झलक सबुराई,
ठन ठन चपल चलत, मुख गुलाल दे मसराई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई,
ढोल बजे सहु नगाड़े,बरसत जल बिन बदराई,
फागुन दियो पछाड़, विसार देब माघ एहो भाई,
नभ तापस लायो, धरा धूरि एहो लाल लभुराई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई,
नव प्रेयसी करत, ठिठोरी एहो चहकत सघुराई,
मुख चुम्बन धरत, रपटत आलिंगन मधुमाई,
तन कियो सुगन्धित, काम रति ज्यो मुग्धाई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई,
नमन सबहु इहा, जन मानस जग जसराई,
बसे सबरे जीवन, एहो रंग-सुगंध कण कनाई,
दीयो आसीस मन, तिस रहत सबै चित हर्षाई
खेलत बढ़त बट ज्यो, पाबे सम्पदा निध सौराई,
कियो दहन होलिका, रंगीली होरी अब आई, 


--Man-Vakil

Friday, February 24, 2012

उभर पड़े मन के सब दोष!

रगड़ रगड़ पड़ती रही मन पर, उभर उभर पड़े मन के सब दोष,
सिमट सिमट गया मैं जब-तब, विषम बन गया हूँ लेकर सब रोष,
अंतहीन पीड़ा रहने लगी मन में,मृत होने लगा मन का सब जोश,
गहरी छाया थी पड़ी दुखों के, दिखने लगा सब महू बस दोषम दोष,
इसको छीलूं या उसको काटू, अत्याचार करूँ सब पर बन कुभोष,
सिमट सिमट गया मैं जब-तब, विषम बन गया हूँ लेकर सब रोष,
आशा की किरणों ने छोड़ा आना, अन्धकार ने छीना सर्व तेजोजोश,
व्यथित हो उठा अब मैं ज्वलित सा, अग्नि बानी में भरने लगी दोष,
यहाँ वहां बस कुलषित हो फिरता,बाँट रहा दूषित भावों से माह पोष,
सिमट सिमट गया मैं जब-तब, विषम बन गया हूँ लेकर सब रोष,
===मन-वकील

Friday, February 10, 2012

वक्त की पहचान कर

रखाकर तू हौंसले अब, सीने में डालकर इरादों का फौलाद,
दौर है कुछ ऐसा अब,जो आँखें दिखाती है अपनी ही औलाद,
वक्त की पहचान कर अब, जेहन को दिमाग से ऐसे जोड़कर,
कौन भौंक देगा खंज़र, तेरी पीठ में ऐसे ये झूठे नाते तोड़कर,
राहें होगी अनेक पर संग होंगें उनपर मुसीबतों के कई पत्थर,
चलना तो होगा युहीं इन्ही राहों पर, चाहे रोकर या फिर हसंकर,
सोच भी बदलेगी,जब देखेगा तू बदलती दुनिया की अजब रंगत,
अकेला बढ़ चलाचल जिन्दगी के काफिले में,न जोड़ कोई संगत,
गैरों ओ अपनों के फर्क में, रहेगी एक महीन सी लकीर यहाँ वहाँ,
ढूंढ़ले बस रोशनी डगर पर,खुशियाँ अब मिलती इस जहाँ में कहाँ,
सफ़र पूरा होते ही निकल, पहन कर ५ गज भर की सफ़ेद चादर,
लोग बस मिटटी में मिला देंगे,मिलता है बाद में मुरझाये फूलों से आदर ....
==मन-वकील

Sunday, January 15, 2012

दुनिया बस एक मुसाफिरखाना!

मैं हूँ बस मैं, अरे यहाँ मुझमें कोई और नहीं है,
आज का पल है ये, कोई और बीता दौर नहीं है,
यूँ आसमां से ही टूट कर गिरते है,सितारें यहाँ,
चाँद नहीं, बस यही फलसफा, कुछ और नहीं है,
मत रो कि गर्दिशों में घिरे रहने से आएगी हिम्मत,
बुरे वक्त में, इससे बड़ी उम्मीद कुछ और नहीं है,
मत सोच, कि यहाँ रहना है तुझे ताउम्र बाबस्ता,
दुनिया बस एक मुसाफिरखाना से बढ़कर कुछ और नहीं है ............
---मन-वकील ....

Sunday, January 8, 2012

ना जाने कहाँ, जाकर सो गया है भाग्य!

जतन से जतन, हिम्मत से हिम्मत तक,
राह की सब कठनाईयां,लांगने का हौसला,
महीन डोर से बंधी हुई, मन में एक आस सी,
पर ना जाने कहाँ, जाकर सो गया है भाग्य,
वेदना से आहत हुई, चेतना भीतर ही भीतर,
घुट घुट कर दम तोडती, पर होंठ सिये हुए,
असफलता से भारी हुआ, पल पल अहसास,
पर ना जाने कहाँ, जाकर सो गया है भाग्य,
कर्मों का पुनः पुनः, हिसाब करती जिन्दगी,
इस जन्म के थे, या फिर किये होंगे पूर्व में,
सवालों से घिरा हुआ, मैं उदासीनता समेटे,
पर ना जाने कहाँ, जाकर सो गया है भाग्य,
===मन वकील

Monday, January 2, 2012

दीवारों पर लिखी इबारत ....

दीवारों पर लिखी इबारत की तरह,
जिन्दगी अब रोज़ पढ़ी जाती है मेरी,
कई कई बार पोता गया है इस पर,
चूना किसी और की यादों से गीला,
ना जाने क्यों? उभर आती है बार बार,
लिखी हुए इबारत ये, झांकती सी हुई,
चंद छीटें जो कभी कभार आ गिरते,
बेरुखी से चबाये किसी पान के इस पर,
रंगत निखर आती इसमें दुखों की युहीं,
अरमानों की बुझी काली स्याही से लिखी,
आज भी बता देती ये मेरे भाग में बदा,
पानी से मिटने की चाह भी ना जाने अब,
चाहकर भी कही ना जाने कहाँ गम है,
बस दिखती है तो ये मेरी जिन्दगी ऐसे,
दीवारों पर लिखी इबारत की तरह युहीं ....
==मन वकील

जब लेखनी हो गयी उदास

जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
भावों की नैया रहे डगमगा,
मन के भीतर नहीं अहसास
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
संदूक में छुपा कर रखा है,
जो खेलता था कभी रास,
अवशेष है जैसे कोई राख,
ख़ामोशी लेती है मेरी सांस,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
कोनों में पड़े थे जो आंसू,
निकल करे लेते है अड़ास,
रोकने पर भी नहीं रुकते ये,
दिखलाकर पीड़ा की खटास,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
===मन वकील

५ गज भर की सफ़ेद चादर

रखाकर तू हौंसले अब, सीने में डालकर इरादों का फौलाद,
दौर है कुछ ऐसा अब,जो आँखें दिखाती है अपनी ही औलाद,
वक्त की पहचान कर अब, जेहन को दिमाग से ऐसे जोड़कर,
कौन भौंक देगा खंज़र, तेरी पीठ में ऐसे ये झूठे नाते तोड़कर,
राहें होगी अनेक पर संग होंगें उनपर मुसीबतों के कई पत्थर,
चलना तो होगा युहीं इन्ही राहों पर, चाहे रोकर या फिर हसंकर,
सोच भी बदलेगी,जब देखेगा तू बदलती दुनिया की अजब रंगत,
अकेला बढ़ चलाचल जिन्दगी के काफिले में,न जोड़ कोई संगत,
गैरों ओ अपनों के फर्क में, रहेगी एक महीन सी लकीर यहाँ वहाँ,
ढूंढ़ले बस रोशनी डगर पर,खुशियाँ अब मिलती इस जहाँ में कहाँ,
सफ़र पूरा होते ही निकल, पहन कर ५ गज भर की सफ़ेद चादर,
लोग बस मिटटी में मिला देंगे,मिलता है बाद में मुरझाये फूलों से आदर ....
==मन-वकील

Wednesday, November 30, 2011

कभी जो ऐसे अपने पांव देखा

धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
सरकती और सिमटती कभी उस धूप को होते छाँव देखा,
उजालों से घिर घिर के आये, कभी स्याह अँधेरे ऐसे भी,
साँसों को बिलखकर रोते, मौत से मिलते दबे पाँव देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
उम्मीदों के घरोंदें होते है बस, कुछ रेत से भी कमज़ोर,
आंसू मेरे बहा दे इन्हें ऐसे, टूटते इन्हें बस सुबह शाम देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
जहाँ ढूंढते रहते है हम, उनके पैरों के वो गहरे निशान,
उस दलदल को सूखते हुए,बदलते दरारों के दरमियाँ देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
कभी तो पूछ मुझसे यूँ तू,मेरे ऐसे बिखरने का वो आलम,
क्या बीती मुझ पर जब, पड़ते उलटे जिन्दगी के दाँव देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,

Friday, November 4, 2011

पाखंडी चड़त रहीं अब सिंहासन,भलो जावत रहे जेल

महाज्ञानी महापंडित सबै देखे, हम जल भरते ऐसे,
भाग्य सो बड़ो नाही कोई,पछाड़ दियो जो सबहु जैसे,
जो होए सबल तो मिल जाए,माटी भीतर भी सोना,
जो होए धूमिल तो हाथ कमायो भी सबहु हो खोना,
अंधे जैसो दिखत नहीं कबहू, राह पड़ी वो सबरी मुहरे,
भाग्य बदा मिलतो सबहु चाहे कछु जतन कोऊ जुहरे,
कागा खाता रहे पकवान, हंस चलत बस भूख बिधान,
कूकर चाटे रस मलाई, और गैय्या सांगे कूड़े बहुबान,
देख मन-वकील एहो भाग्य की जस तस भाँती-२ खेल,
पाखंडी चड़त रहीं अब सिंहासन,भलो जावत रहे जेल ....
==मन-वकील

Tuesday, November 1, 2011

इंसान हर एक दुसरे को सिखाता है

कौन किसको कहाँ और कब सिखाता है मेरे दोस्त,
ये तो वक्त है जो यहाँ हर चोट लगाता है मेरे दोस्त,
गर गर्दिशों की आंधियां सिखाये पत्थर सा बनाना,
बादलों का सैलाब मन का नम बनाता है मेरे दोस्त,
रोक ना कभी इस इन्तज़ाम-इ-कुदरत के सबक को,
यहाँ इंसान हर एक दुसरे को सिखाता है मेरे दोस्त ...
==मन-वकील

Sunday, October 30, 2011

आँखों की देखी

आँखों की देखी, कुछ मैंने ऐसी देखी,
चाहे रही वो कुछ अटपटी अनदेखी,
पर सिखा गई मुझे वो सब मन देखी,
चित्रपट सी घटित हुई जो हमने देखी,
दुर्भाग्य थी या आकस्मिक जो देखी,
अपनों संग विश्वास, भली भाँती देखी,
कड़वे नीम सी बीती जो औरों ने देखी,
इच्छा अनिच्छा के दौर में घूमे देखी,
मन की परतों पर चढ़ी धूल भी देखी,
कभी आँखों से बरसती वर्षा सी देखी,
कभी मन में रिसती नदी बनती देखी,
पीड़ा के उदगम में कही सिमटती देखी,
कभी नन्ही बेटी सी मुस्कराती भी देखी,
बहुत देखी अज़ब गज़ब सी होती यूँ देखी,
हाथों से रेत सी फिसलती जिन्दगी देखी ....
====मन-वकील

Wednesday, October 26, 2011

ए खुदा कुछ ऐसा कर दो !


इस जीवन का एक सार बना दो,
आज मुझे बलि पथ पर चला दो,
सत्य नहीं असत्य भरा इस घट में,
कोई कंकर मार इसे तोड़ गिरा दो,
रागों को बैरागी लेकर अब निकले,
बेसुरों से सब संगीत युहीं सजा दो,
कौवों को पहनाओं तमगे पुष्पहार,
कोयल को अब पत्थर मार भगा दो,
गिद्दों के संग खायो बैठ ये निरामिष,
ज्ञान हंसों को अब यहाँ से उड़ा दो,
रहने दो अब ये बालाएँ केवल नग्न,
इनके वस्त्र अब हरण कर बिखरा दो,
रोने दो अब भूखे मानव को बस ऐसे,
अन्नित खेतों पर अब कंक्रीट बिछा दो,
कहाँ क्रांति ला पाओगे अब तुम मित्रों,
बस मेरे ही विद्रोही स्वर को मिटा दो ....
===मन-वकील

प्यार की वो मजार

कहने की बात थी वो उसे कहदी और सुना दी कब की,
जो दिल पे बन आई थी वो छुपाकर भी दिखा दी कब की,
दुनिया की हवस में अपनी हस्ती ही मिटा दी कब की,
क्या कितना खोया अब दीन-ओ इबादत भुला दी कब की,
दिल लगाने की ऐसी सज़ा मिली, रूहे आतिश बुझा दी कब की,
अब नहीं फ़िक्र नहीं फनाह होने की, हर हसरत मिटा दी कब की,
कब्र या इबादतगाह क्यूँकर जाए अब हम कभी, ऐ मेरे दोस्त,
जब इस दिल में उनके प्यार की वो मजार सजा दी कब की ,
एतिबार नहीं खोया खुद पे, ना खायी कभी भी झूठे कसमें हमने,
जब जहर-इ नफरत पीकर हर सुं, दीवानगी ऐसे लुटा दी कब की
दफ़न कर दिए सब हुजूमे-गम भीतर, छुपाकर सभी हसरतें अपनी,
बस यार की राह तकते तकते, जिन्दगी अपनी लुटा दी कब की ....
==मन-वकील

उनके आने का सबब

रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
आँखों में नशा, होंठो पे प्यार का सबब बनता है..
वो जो आ जाते है तो पल में सब ठहर जाए,
उनके आते ही खुशबू सी हर सु बिखर जाए,
हुस्न के उनके दीदार तो वो कमबख्त चाँद भी चाहे,
अठखेलियाँ करती है हवा, ये मौसम भी मुस्काये,
तन में मेरे हरारत सी का कुछ सबब बनता है
रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
रौशनी फैले उनके नूर-इ-हुस्न की फिजाओं में,
रात आकर दुआएं मांगती ,रहने को उनकी पनाहों में,
चाहू उनके मुखड़े पर, बस मेरे नाम की हो पुकार,
वो मुझे छू लेने दे, कर लूं मैं हुस्न के पुरे दीदार,
आज बस बातों से परे,खामोश आहट सबब बनता है,
रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
==मन-वकील














रंगरेज़


मैं था रंगरेज़ के हाथों में इक कपडे जैसे,
थामे था जो मुझको,वो हुआ रंगने को ऐसे,
मैं जो पल में था हल्का, सफ़ेद बादल जैसे ,
अब युहीं गहरा हो गया, ना जाने क्यूँ ऐसे,
मासूमियत मेरी वो,अब सिमट गई हो जैसे,
अब खुद की पहचान ढूंढ़गा,मैं खुद में कैसे,
भरी भीड़ में था डर,मैल छूने पे जो मुझे जैसे,
अब घटा सी मुझमे छाई, कई दागों की ऐसे,
विवादों से परे रहकर, जो मैं जीया था ऐसे,
अब घिर गया हूँ उनमे,निकलूंगा बाहर कैसे ....
==मन-वकील

नहीं याद करते तुझे हम.

गम से निजात कहाँ, अब चैन मिलता हमें अब कहाँ,
गंगा भी है अब सूखी,जो बहते खून के दरिया यहाँ वहां
अरे जन्नत और जहन्नुम के फर्क को,ऐसे अब भूले हम,
तू क्या खुदा है, ना मिलने पे तेरे,फिर क्यूँकर करते गम,
नाराज़ है वो खुदा भी,जो मेरी बंदगी से भी नहीं है मानता,
मनाये किसे मन-वकील, रूठे खुदा को या तुझे, नहीं जानता
अरे दोस्तों को भुला कर, तेरी रौशनी को क्यूकर हम चाहे
गैरों की खाती हो तुम कसमें, फिर क्यूँकर ना तुझे भुलाए,
हम भूलने की चीज नहीं, खूब याद रख तू ऐ बेवफा सनम,
तुझे दिल से है मिटाया अब हमने, नहीं याद करते तुझे हम...
==मन-वकील

Friday, October 7, 2011

पेट के खातिर

पेट के खातिर इंसान जाता देश से बाहर,
पेट के खातिर औरत जाती अपने घर के बाहर !
घर से रह कर दूर हम बुनते घर का सपना!
जब वही करे औरत , तो लोग कहते उसे वासना!
परिवार के वास्ते करते हम अपने ऊपर वालों की गुलामी,
औरत लेती  हर एक रात किसी गैर मर्द की सलामी!
कोई मुझे समझाए फर्क क्या है इन दोनों की किस्मत में,
हर वक़्त करते समझौता, किसी और की खिदमत में!
इंसान की फितरत है खुद को झंझोरना,
मगर क्या अच्छा है ये दूसरों पर दोष लादना?
अगर हम करें तो नौकरी और वो करे तो वासना पूर्ति
हम करें तो बलिदान और वो करे तो बदचलन मूर्ति?

==मन वकील





Saturday, October 1, 2011

मेरी तारीफ़ ना करना



प्यारे मित्रों ऐसे यूँ मेरी तारीफ़ ना करना ,
अरे इन्सान हूँ एक, मेरी फितरत है डरना,
कभी बुरा हूँ मैं और तो कभी बहुत बुरा हूँ ...
आदत न हो जाये मेरी गिरगिट सा रंग बदलना ,
सच्चा ना था कभी, फिर भी सच है मन में,
शायद इस कारण भूल गया मैं सबसे झगड़ना,
लोभी होता कभी मैं तो खुद से डर कर ऐसे,
पाप के अंधे रस्तों पर आने लगा मुझे संभलना !

==Man-Vakil

प्रेम कवि

वो कहते रहते मुझे प्रेम कवि,
शायद मैं ऐसा कवि था नहीं कभी ,
क्षणिक भंगुर तुकबन्दियाँ ही जोड़ ,
मैं करता रहता दिलों में बस भागदौड़,
मन की व्यथा या मन की उत्तेजना,
जब भी उठती, मैं लिख देता बस तभी,
वो कहते रहते मुझे प्रेम कवि,
शायद मैं ऐसा कवि था नहीं कभी ,
उन मित्रों को, जिन्हें न देखा मैंने,
पहनाये उनको भी आदर प्रेम-गहने,
नीरस जीवन में बस रस-स्वादन करने,
मैं आ बैठता यहाँ, खग जैसे जभी तभी,
वो कहते रहते मुझे प्रेम  कवि,
शायद मैं ऐसा कवि था नहीं कभी ....

Sunday, September 25, 2011

नारी!

वो कभी माँ है, बेटी है और बहन भी है ,
वो प्रेमिका है, वो संगिनी जीवन भी है,
वो कई कई रूप में मेरे सामने है अवतरित,
वो मुझे मुक्त कर दे ऐसा पाप दहन भी है,
कभी शक्ति स्वरूपा, कभी एक बरगद है,
वो जो जननी पालिता है उसे नमन भी है,
वो हमेशा रखती ख्याल अपनों का भी है
प्यार की मूरत और दुर्गा का एक रूप भी है
धरती सी सहनशील,दुष्ट विनाशिनी भी है
संसार को आगे बढ़ने वाली माँ भी है
पुरुष प्रधान संसार में, अस्तित्व बनाती भी है
प्यार का दरिया, सागर
समान व्याप्त भी है!!

==man-vakil

Thursday, September 22, 2011

बावफा " मल्लिका "

एक छोटे से कागज़ पर तुमने अपनी कहानी लिख दी
इस बन्दे ने नाम तुम्हारे, अपनी पूरी जवानी लिख दी
करते हुए प्यार की वो बाते उस नीम के दरख्त के तले
प्रेमरस में डुबो अपनी कलम, वो कई शाम सुहानी लिख दी
वादा जो किया उमर का हर पड़ाव तुम्हारे साथ रहने का
उसी राह में मौत आने तक, बुढ़ापे से पहले जवानी लिख दी
क्यों लिखूं अब किसी मंज़र या दरख्त पे एक-दूजे का नाम
जब दिल में तुझे बसा, तुझमे अपने प्यार की निशानी लिख दी
हौले-हौले डूबी नशा-ए-मोहब्बत, ऐ मेरे दिल की बावफा " मल्लिका "
लोगों की जुबाँ पे रहे हमारा नाम ताउम्र,ऐसी दास्ताँ आसमानी लिखा दी

Saturday, September 10, 2011

इत्मीनान

अरे कभी खुद-फरोश हम नहीं,
रहता है हमें इस बात का गुमान,
वफ़ा ही है सिर्फ हमारी फितरत,
बसते है भीतर इसके ही निशान ,
ये माना,छूट जायेगा बहुत कुछ ,
बीते कल को लेकर, नहीं परेशान ,
खुशियाँ आकर छूकर चली जाती ,
मिजाज़ पर रखते,अक्सर लगाम,
काबू रहे दिलोदिमाग की तेज़ी पर,
मन-वकील है देते सब्र का इम्तिहान
यारो के यार हैं हम, सिर्फ इसी बात का
हमे है तहे दिल से इत्मीनान ! ....
===मन-वकील

कालेज के दिन

कालेज के उन दिनों में,
क्या दिल की हालत होती,
हम मदहोश हुए रहते,
और आँखों में शरारत होती,
नोटबुक पे लिखते थे, हम
सबक,जब संग कलम होती,
ब्लैकबोर्ड पर दिखती अक्सर,
तस्वीर, जो दिल में बसी होती,
नोट बुक पर तो उतरते थे सीधे,
अक्षर, पर याद में उनके बदल जाते,
क्या कहें हम अब दोस्तों वो दिन,
जब आखिरी पन्नों में उनका नाम दोहराते...
====मन-वकील

Monday, September 5, 2011

यारों के लिए!

मेरे नसीब में चाहे हो कांटे, पर मेरे यारों को,
फूलों की महफ़िल मस्तानी दे मेरे मौला,
भूख के नश्तर उन्हें चुभ ना पाए मेरे यारों को,
दावतें रंगी दस्तरखाने जमानी दे मेरे मौला,
झूठ फरेब के जाल अब छू ना पायें मेरे यारों के,
दिल में सच के रंग आसमानी दे मेरे मौला,
तरस गयी अब आँखे तेरे दीद को मेरे यारों की,
पत्थर से निकल दरस सुल्तानी दे मेरे मौला.......


==Man -Vakil

आत्म निरिक्षण !

कभी कभी लिखता हूँ मैं,
युहीं अपने मन की बात,

कभी बिछा लेता हूँ युहीं, मैं,
अनकहे किस्सों की बिसात,
कभी सजा लेता हूँ ऐसे, यारों

उन रंगीन तस्वीरों की बरात,
कभी नमकीन देसी का मज़ा,
कभी मीठी बातों की सौगात,
क्या हूँ ? और क्या बनूँगा मैं,
इस बात की नहीं परवाह मुझे,
कुछ सरल सी है मेरी जिन्दगी ,
जो दौड़ती है पथरीली राह पर,
चिंता कभी नहीं मुझे, भविष्य की ,
पर खा गया मुझे मेरा निवर्तमान,
खोये भूत में खोकर, अपना आज,
मैं रहता आया उदासी की छाँव में,
तरलता मन की उमंगों में रही बसी,
और मैं बहता रहा दूसरों की राहों में,
प्रेम कैसे करूँ मैं, ऐसे मीरा बनकर,
जो मिलते नहीं जो कृष्ण बांहों में,
सदैव रहा हूँ प्यासा एक चातक सा,
ढूंढ़ता हूँ मैं जिन्दगी, खोयी राहों में,



==Man-Vakil

Wednesday, August 24, 2011

धर्म के नाम पर!

वो लड़ते है उसके नाम पर, अब उसे नहीं है खोजते,
वो महसूस करते है उसे पर, अब उसे नहीं सोचते,
चहु ओर फैली हवाओं से उजालों तक वो ही छाया है,
करिश्मे उसके अज़ब, कभी रूप धर, कहीं बिन-काया है,
कोई बोले उसे राम या कृष्ण, कोई हो शिव ॐ से ही शुरू,
कोई सजदे कर बोले अल्लाह, कोई उच्चारे हे वाहे गुरु,
कभी ईसा है वो मेरा, कभी गौतम बनके धरती पर आये वो,
कभी निरंकार है, कभी अवतारों का ही कोई रूप सजाए वो,
वो है तो फिर बहस करने से, क्यूँकर ज्ञान हम ऐसे बघारे,
अरे वो है चहुँ ओर, हर जगह ,यहाँ वहां इर्द गिर्द बसता हमारे|

=man-vakil 

भ्रष्टाचार चहुओर पलता है

चाँद सिक्कों के बदले बिकती है आज ईमानदारी,
यहाँ चलती है यारों सरकारी महकमों में इनामदारी,
कहीं कोई रुकावट हो ,या हो कोई भी अड़चन कैसी भी,
सुना दो खनक सिक्कों की,हल हो मुसीबत जैसी भी,
कहीं कहीं नहीं अब तो, हर शाख पर उल्लू ही बैठा है,
यहाँ माई-बाप है रिश्वत, चहु ओर भ्रष्टाचार ही ऐंठा है,
अब अंधे की लाठी बनकर, सिर्फ पैसा ही सब चलता है,
कहाँ कहाँ मिटाए इसको, अब भ्रष्टाचार चहुओर पलता है...
बिक गयी इमानदारी,अब तो बस नोट ही बोलता है,
हर तरफ से जनता को, उनका नेता ही लुटता है..
कोई खुद के नापाक इरादों को,जनता से छुपता  है,
कोई यहाँ गरीबों के घर भोजन करने का ढोंग रचता है,
कोई रखता अपना मत यहाँ,तो कोई मैडम के बोल बोलता है,
अन्ना बैठे अनसन पर,कोई अपने स्वार्थ में तुडवाना चाहता है,
मगर इस भोली जनता का दुःख न कोई समझा,न समझना चाहता है!!!!

-Man-Vakil 

Sunday, August 21, 2011

व्यभिचार की पीड़ा !

मेरी देह पर उनके रेंगते हुए हाथ,
आज भी भय से सिरहन दौड़ जाती,
कितनी बार उठ बैठती हूँ मैं रात रात,
और वो वीभत्स हंसी ठहाके सुनाई देते,
वो पीड़ा का अहसास मेरे भीतर जागता,
और शरीर के दर्द से ज्यादा मन में पीड़ा,
रोष भी शायद अब अश्रु बन के निकलता,
कुछ कहना चाहती हूँ मैं चीख चीख कर,
इस खोखले समाज के निर्जीव जीवों से,
किन्तु यह क्रंदन तो तब कर चुकी थी मैं,
जब मेरी देह को रेत की तरह रोंदा गया,
अब तो केवल चिन्ह शेष बचे है घावों से ,
और मैं अभिशिप्त हो गयी हूँ बिना दोष के,
बलात्कार मेरी देह से नहीं हुआ था केवल,
संग मेरे भीतर की आत्मा को भी रोंदा गया,
और एक ख़ामोशी आकर अब बस गयी,
ना जाने कहाँ से मेरे भ्रमित अस्तित्व पर,
और मैं ढूंढ़ रही हूँ, अपनी खोयी अस्मिता को,
इधर उधर सब जगह, इस निरीह संसार में ,,,,,
==मन वकील

आओ बने अन्ना!!!

चारों ओर है हाहाकार, यहाँ अब हर शख्स रोता है,
फैली है बेरोज़गारी, पढ़ा- लिखा नौजवान रोता है,
बैठे है पर फैलाएं यहाँ, चहु ओर गिध्दों के झुण्ड,
धरा बंजर हो गयी है, और सूख गए जल के कुण्ड,
हवाओं में भी है जहर,प्रांतीयता और क्षेत्रवाद से भरा,
अपराध अब संसद में पलता है, चाहे छोटा या बड़ा,
बनकर हमारे खुदा, वो अब हमें ही को लुटते हर-पल,
भरे है अब बाहुबली सरीखे नेता, चाहे कैसा भी हो दल,
भ्रष्टाचार की चादर, अब हर सरकारी बाबू तान कर सोता,
बंगले है कारें है, चाहे इस देश का जन-मानस भूख से रोता,
सिक्का हो कैसा भी, बस सरकारी लोगों का ही है चलता,
संसद या न्याय-पालिका,सभी जगह इनका ही जोर है चलता,
किसें है खबर, अब कहाँ हमारी आजादी है अब खोयी ?
कौन जानता है किसकी आँखें उसे ढूंढ़ते हुए है कितनी रोई?
भुला बैठे है अब हम अपनी भारतीयता की एक वो पहचान,
जिन्होंने दी शहादत इसके लिए भुला दी उनकी भी पहचान,
अब तो इंतज़ार है,कब चलेगी इस मुल्क में बदलाव की आंधी,
जागो ऐ मेरे यारों, बनके अब अन्ना हजारे और महात्मा गाँधी ........
==मन-वकील

Saturday, August 13, 2011

क्या हूँ मैं?

कुछ शब्दों में समेटना चाहता हूँ मैं सारा नीला आकाश,
फिर भी ना जाने क्यूँ, पैरों तले जमीन खिसका जाती है ,
कभी चहुँ अगर रोकना, बहते मन के भावों कि नदी को,
फिर भी ना जाने कैसे, रेत सी हाथों से जिन्दगी फिसल जाती है
नहीं हूँ आकाश मैं, पर कुछ अंश उसका भी समेटे हूँ,
नहीं हूँ जल का अभिप्राय, पर कुछ अंजुली भी समेटे हूँ ,
वायु सा  नहीं हूँ तेज़ मैं, पर कुछ उड़ते भाव समेटे हूँ ,
धरा सा विशाल नहीं रहा मैं, पर कुछ कण भी समेटे हूँ,
ओज़स शायद भरा हो कुछ भीतर मेरे, जो प्रकाशित हूँ मैं,
पावक में देह से राख बदल जाऊँगा, कुछ पञ्चभूत सा हूँ मैं|||

-मन वकील

राखी का बंधन !

कुछ रेशम के धागे है जो बाँधते है , प्रेम का एक सच्चा नाता,
वो छोटी बहन या बड़ी दीदी के संग अविरल स्नेह को जगाता,
कलाई पर बंधकर जो ना जाने कैसे मन की गहराई को पाते,
जो व्यापारिकता से हटकर , भाई बहन के रिश्तों को सजाते,
जब वो दूर हो जाती तो कैसे मेरे नेत्रों से बहने लगती अश्रु धारा,
जिस बहन के संग खेला, कैसे भुला दूँ वो रिश्ता प्यारा हमारा,
आज फिर उसी रिश्तों को मज़बूत करने का फिर वो दिन है आया,
सदा नमन है उस देव तुल्य को जिसने रक्षा बंधन का दिन है बनाया......
======मन वकील

Sunday, August 7, 2011

स्नेह था या फिर मोह

उससे स्नेह था या फिर मोह,
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
न जाने क्यों मुड़ मुड़ कर कदम,
फिर बढ आते उसी राह पर,
और नैन खोजते रहते यहाँ वहां,
उसकी वो मोहिनी मूरत को,
और बैचैन सा हो उठता था मैं,
सुध नहीं रहती अपने तर्कों की,
और वो सारे प्रण भुला बैठता,
मैं एकाएक ना जाने क्यूँकर,
अशांत मन अतृप्त काग सा,
और कोई औंस की बूंद भी,
नहीं मिलती किसी प्रेयसी से ,
फिर मैं नए प्रण लेता, हारकर,
केवल यही धूल पुनः छांटने को,
सोचता रहता सदैव, मैं मन में ,
उससे स्नेह था या फिर मोह,
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
====मन-वकील

Monday, July 18, 2011

पैसा

पैसा चलता है दोस्त , हर एक डगर पर,
पर कभी कभी प्रेम डगर पर नहीं चलता,
दुनिया में बैठे है लाखों बोली लगाने के लिए,
पर ना जाने क्यों,ईमानदार को ये नहीं फलता,
खुशियों के बाज़ार सजा देता है, अक्सर पैसा,
पर पैसे का रूप मन की ख़ुशी में नहीं ढलता,
रात दिवाली बना लो या दिन में इससे ईद,
पैसा से यारों जीने का अहसास नहीं बदलता....

=======मन-वकील

अफसाना

बना इक नया इतिहास, रच हर रोज़ नए अफसाने,
मत परवाह कर किसी की, कोई तुझे माने या न माने,
डगर पर चला चल, हर किसी की बातों से हो अनजान,
अपनी सुध में लिख इक नयी तहरीर,चढ़ रोज़ नए सोपान,
कोई उठाएगा तुझ पर तलवार, कोई पहनाये फूलों के हार,
कोई करेगा तेरी सिफत तारीफ, कोई करेगा तेज़ तेज़ वार,
मेरे दोस्त तू लिखेगा इक अमर अफसाना, इस
दुनिया
का,
बस बढ़ता चल, इन कडवे सवालों से कभी हिम्मत ना हार,


===Man-Vakil

टूटे ख्वाब रूठे नसीब!

रात भर बैठ कर अब रोता है वो,
याद कर कर अपने बीते अतीत को,
कैसे सजते थे वहां उसके रौनक मेले,
लोग जलते थे देख कर,उसके नसीब को,
जब खुशियाँ मुड़ वापिस आती हर-पल,
ढूंढ़ने उसे या शायद चूमने उसकी दहलीज़ को,
वक्त का पहिया घूम घूम कर तेज़ भागता,
लौट कर आने को हो, खोजता किस तरतीब को,
वो हर शह को समझता था अपना गुलाम,
लुभाता था वो एक सा, अपनों को या रकीब को,
रातों के काले साए भी नो छू पाए , उसे कभी,
रौशनी के दौर चलते सदा, होकर उसके करीब को,
पर जैसे बदलते है यारों मौसम के भी हर दौर,
पड़ गए उसके नसीब के धागे भी कुछ कमज़ोर,
रातें भी आने लगी अब होकर स्याह उसके करीब,
टूट गए थे सब ख्वाब, रूठ गए सब उसके नसीब ./....
==मन वकील

ईश्वर है या नहीं?

वो है तभी तो मैं हूँ..
सर्व-विद्यमान है वो,
कभी किसी रूप में आ,
कभी कोई खेल दिखा,
वो कर देता है मुझे,
एकाएक विस्मित सा,
ना कैसे कर दूँ उसको,
या उसके अस्तित्व को,
जब वो सदैव रहता है,
मेरे इर्द-गिर्द, चहु ओर,
मेरी प्रत्येक क्रिया को,
वो निर्धारित करता है,
ताकि अँधेरे से मुक्त हो,
और ज्योति से युक्त हो,
मैं बना रहूँ एक इंसान,
मेरी माँ बनकर कभी,
कभी पिता के रूप में,
कभी प्रिये मित्र सा हो,
कभी मेरी नन्ही बेटी,
ना जाने किस किस ,
रूप को धरकर वो, सदा,
मुझे एक डगर पर चलाता,
और तुम कहते हो कि,
वो मेरा बंधू मेरा सखा,
ईश्वर है या फिर नहीं ,
====मन-वकील

Sunday, July 10, 2011

ख्वाब कुछ सुनहेरे....

मेरी पलकों के कोनों में छुपे है ख्वाब कुछ सुनहेरे,
कभी हो जाते है कुछ धुंधले, कभी बस जाते अँधेरे,
कभी बह जाते है वो मेरी पलकों से संग आंसुओं के,
कभी बस पड़े रहते युहीं, रहकर नम से, ठहरे ठहरे,
मेरी पलकों के कोनों में छुपे है ख्वाब कुछ सुनहेरे,
कभी चेहरे नज़र आते है उनमे कभी परछाई से गहरे,
कभी एक ढलती रात से होते और कभी उजले से सवेरे,
कभी बस टूटने को होते, कभी बस आगोश में रहते मेरे,
मेरी पलकों के कोनों में छुपे है ख्वाब कुछ सुनहेरे,
कहीं तो शोर करते है ये, कभी ख़ामोशी से करते बसेरे,
कभी पुकारते है मुझकों, दिखाकर यादों के फूल वो तेरे,
कभी मासूम से होते, कभी कुरेदते ये, वो जख्म भी मेरे,
मेरी पलकों के कोनों में छुपे है ख्वाब कुछ सुनहेरे, .....
====मन-वकील

जोड़ आने जाने वालों का....

वो बैठा रहता है अब सड़कों पर, बिना रफ़्तार के यारों,
सुनाई भी नहीं देता उसे अब शोर आने जाने वालों का,
बहरा तो नहीं था वो पर अब ना जाने क्यूँ नहीं सुनता,
आँखें पथरा सी गई है देख हजूम आने जाने वालों का,
कोई तो शह सी होगी, जो रखे है उसे बांधें इन सड़कों से,
वर्ना कब लगता था उसे भला, रेला आने जाने वालों का
तकदीरों के फैसले उसे, ना जाने कहाँ से कहाँ ले जाए,
बस अब बनके रह गया वो,इक जोड़ आने जाने वालों का ....
---मन-वकील

Friday, July 8, 2011

एक खिलाडी!!!


जाने कहाँ खड़ा था मैं , कहाँ जाने का दिल था
पता ना चला कब वक़्त का पहिया चल पड़ा था
में बेबस सा देखता रह गया वो निकल पड़ा था
दोस्त था वो, मगर प्यार से कभी भी कम ना था |
आज जब याद आती है उसकी अखबार देख लेता हूँ
देखि तस्वीर उसकी तो निकलते हैं खुसी के आंसू
येही कहते हैं सारे झारखण्ड वाले, सारे देश वासी
जन्मदिन है आज उसका ये बोहतो को पता ना था
मगर आज किसी के भी दिल से वो अछूता ना था |
देश की आवाज,जवान दिलो की धड़कन है वो
बांझो का भी दुलारा बेटा है वो..एक आदर्श है वो
हर भारत वासी से जुड़ा है वो देश की शान है वो
भारत रत्न से सम्मानित व्यक्ति विशेस है वो
हर भारतीय के लिए गर्व की बात है वो
हर दुसरे देश के लिए जलने वाली बात है वो
दुश्मनों को पछाड़ता, जीत का मंत्र सिखाता है वो
सालो के सूखे को तोड़ कर देश का मान बढाया है वो |
हर किसी के दिल से जडित हम सबका महिंदर है वो
सिंह नाम जुडा है उसके, क्रिकेट का राजकुमार है वो
अब तो आप समझ ही गए के हम सबका धोनी है वो
प्यार पाने का हकदार और सर ऊँचा रखने वाला है वो!!!!!!

Sunday, June 26, 2011

जन्मदिन!!!

"आपके जन्मदिन पर तोहफा में क्या भेजूं...
जिसके पास हो सब कुछ उसे कुछ और क्या भेजूं...
खुस रहो हमेशा जीवन में बस येही दुआ भेजूं...
इस मुबारक मौके पर प्यार भरा एक पैगाम भेजूं..
लिखने का नहीं है दम मुझमे फिर भी कविता एक लिख भेजूं...
सोचा कभी मैंने के इस बार तुम्हे हीरो का हार भेजूं
फिर आया याद के जो हो तेरे बेकार उसे क्यों भेजूं...
जो दे ना पाया कभी आज वो तुझे प्यार भेजूं...
जिसके पास हो सब कुछ उसे कुछ और क्या भेजूं............."

Wednesday, June 22, 2011

दर्द!!!

हाल छुपाकर रखा करों दोस्त, सीने में कही इस तरह,
लोग ना जान पाए तेरे दर्द का समंदर, कुछ इस तरह,
जुबाँ का काम लो मेरे दोस्त, अपनी आँखों से इस तरह,
अरे, अल्फाज़ निकले बस बहकर कुछ आंसुओं की तरह 


यारों जुबाँ खोल कर ज़रा देखा, तो फितरत सामने आ गई,
उनके चेहरे की रंगत बदली अचानक, नफरत सामने आ गई,
बस खामोश रहकर सब देखते रहे, जब हम दुनिया की रंगत,
सजने लगी फिर यारों की महफ़िल,चाह-इ-हसरत सामने आ गई...


===Man-Vakil
 

Saturday, June 18, 2011

प्यार अभी बाक़ी है॥

Friends Another wonderful poet has joined our mission..Mr Tigerlove...Here's his contribution..

गुलशन का इन्तज़ार अभी बाक़ी है॥
पतझङ चली गई बहार अभी बाक़ी है॥

खेल चुके है इन्सान खून की होली

गिद्धोँ का त्योहार अभी बाक़ी है॥

फिर लुटने की तमन्ना है शायद

लुटेरोँ पर ऐतबार अभी बाक़ी है॥

दिखा दिया तलवार का जौहर तुने

मेरी क़लम का वार अभी बाक़ी है॥

बोएँ खूब "
शेर" लोग नफरत की फसल
पर मेरे खेत मेँ प्यार अभी बाक़ी है॥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
शेर-ऐ-आशिक
♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥

Thursday, June 16, 2011

मेरा वर्तमान

====मेरा वर्तमान
वर्तमान की चिंता करता देखा मैंने भूतकाल,
और भविष्य के पीछे दौड़ता रहता है वर्तमान,
अवशेषों में खुशियाँ ढूंढें, भुलाकर आज की चाल,
इन रेत के घरौंदों में ढह कर रह जाता है वर्तमान,
बीते सपने, बीते हुए पल,धीमी सी हुई वो ताल,
तीव्रता को थामे हाथों में, दौड़ता रहता है वर्तमान,
आने वाले कल की चिंता, बीते कल का करे मलाल,
समक्ष पड़े दायित्व-क्रम को भूलता रहता है वर्तमान,
मेरे बंधू या मेरे शत्रु , सोच सोच बस यही होता बेहाल,
आवसादों को मन के भीतर ढोता रहता है वर्तमान,
======मन-वकील

Tuesday, June 14, 2011

कैसी है यह जिन्दगी-

===कैसी है यह जिन्दगी---
कभी खट्टी है, तो कभी मीठी होती है यह जिन्दगी,
कभी बच्चे की किलकारी सी होती है यह जिन्दगी,
और कभी पुरानी बुढ़िया सी रोती है यह जिन्दगी,
कभी पतझड़ सी, कभी बसंत सी होती है यह जिन्दगी,
कभी जागी तो कभी कुम्भकर्ण सी सोती है यह जिन्दगी,
कभी हकीकत, तो कभी ख्वाबों को पिरोती है यह जिन्दगी,
कभी खेलती रहती, कभी थकी सी होती है यह जिन्दगी,
और कभी अनगिनत यादों के बोझ को भी ढोती है यह जिन्दगी
कभी मेरे करीब है, कभी मुझसे दूर होती है यह जिन्दगी,
कभी तारीखों के पन्नों में दबी इतिहास होती है यह जिन्दगी,
कभी मासूम सी, और कभी चालबाज़ सी होती है यह जिन्दगी,
कभी मन-वकील के मन सी, अशांत भटकी होती है यह जिन्दगी,
कभी तारों की छाँव, तो कभी सूरज की तपिश होती है यह जिन्दगी,
और कभी भीड़ में बैठकर भी, अकेली सी रोती है यह जिन्दगी,
कभी हाथों की लकीरों में, ना जाने कहाँ भटकी होती है यह जिन्दगी,
कभी तकरीरों को सुनती, कभी लतीफों की तरह होती है यह जिन्दगी,
कभी विधवा का क्रंदन,कभी किसी देव का वंदन होती है यह जिन्दगी,
कभी आमों की बयार, कभी साँपों से घिरा चन्दन होती है यह जिन्दगी,
कभी हास-परिहास, और कभी युगों से उदास होती है यह जिन्दगी,
कभी रूठी प्रीतम की तरह, कभी प्रेयसी से पास होती है यह जिन्दगी,
अज़ब रूप धरे रहती , एक अनबूझा सवाल सी होती है यह जिन्दगी,
कभी उलझन बन डूबी रहती, कभी बेमिसाल सी होती है यह जिन्दगी,
मन-वकील अब तो निकल पड़ किसी राह पर,हाथों में लेकर यह जिन्दगी,
बीत जायेगी बिन कहे, और कभी पल-पल सी रुक ना जाए यह जिन्दगी.......
======मन-वकील

कुछ खास शायरी...

अरे जिन्दगी दो दिशाओं में चलती है अब मेरी,
कभी रोशनी तो कही रात ढलती है अब मेरी,
कौन जाएगा मन-वकील किस ओर?क्या खबर,
ये नाव दो धाराओं में फंस के चलती है अब मेरी,
ना ढूंढ़ अब मुझे किसी भी एक मुकाम पे, ऐ सनम,
अरे यह शाम भी दो जगहों पे कटती है अब मेरी,,,,
======मन-वकील 


सदा पैबंद बन कर ही जिया वो, मान बंदगी,
बस सिलता रहा दूसरों की फटी हुई जिन्दगी,
यूँ तो वो था ढांपता, दूसरों के दीखते खुले गुनाह,
पर ना जाने क्यों वो लोग उस पे उठाते उँगलियाँ,
=======मन-वकील  


अब तो उसके टूटने की आवाज़ तक सुनाई नहीं देती,
चोट खाता वो हर-बार, पर कमबख्त दिखाई नहीं देती,
कभी तो झाँक-कर देखों ,उसकी उन खामोश आँखों में,
ऐसी कौन सी गम की परछाई है जो दिखाई नहीं देती.....
=======मन-वकील
 

वक्त का पहिया

वक्त का पहिया चला , साथ मैं भी चल पड़ा..
कुछ पल खुशियों के, कुछ पल गम के भरे,
मुठी में बंद थी जिन्दगी, फिर भी मैं चल पड़ा,
कुछ रूप थे सच्चे, और कुछ बहरूप मैंने धरे,
सोच थी कहीं और कही मन, और मैं चल पड़ा,
लोग मिलते रहे और कुछ राह ही में ही उतरे,
कभी चुभन, कभी सहज, सहन कर मैं चल पड़ा,
भाव आते रहे मन में, झूठे और कभी इतने खरे,
कोई रोके आगे बढ़कर, कोई पीछे, और मैं चल पड़ा ,
विकटता से भरा रहा सदा मैं, कई कई बार मन डरे,
वेदना-चेतना के मेल से युक्त, फिर भी मै चल पड़ा,
वक्त रूककर मुझसे पूछे, कब अंतिम पथ पर खड़े?
======मन-वकील

Sunday, June 5, 2011

मौत महास्वावलंबी है

Another poem by our own Miss Anu Oberoi..
(तुम और तुम्हारी मौत एक ही लग्न में जन्म लेते हैं, पर मौत पहले मर सकती है।)

किसी की उम्र कम
किसी की लंबी है,
और मौत महास्वावलंबी है।
अपना निर्णय स्वयं लेगी,
तुम्हारे चिंता करने से
न तो आएगी
न आने से रुकेगी।
चिंता करके
स्वयं को मत सताओ,
मौत जब भी फोटो खींचना चाहे
मुस्कराओ।
रौनक आ जाती है फोटो में
तुम्हारी दो सैकिंड की मुस्कान से,
ज़िंदगी भर मुस्कुराओगे तो
कभी नहीं जाओगे जान से।

सुनो! तुम्हारे पैदा होते ही
तुम्हारी मौत भी पैदा हो जाती है।
ठीक उसी घड़ी उसी मुहूर्त
उसी लग्न उसी व़क्त
तुमसे कहीं ज़्यादा मज़बूत और सख़्त।
याद रखना मौत मुस्कराती नहीं है,
कोयल की बोली में गाती नहीं है।
वह तो चील-गिद्ध कउओं की तरह
सिर पर मंडराती है
हंसी उसे आती नहीं है।
दांत फाड़े जब वो तुम मुस्कुराओ,
और जब दहाड़े तुम गुनगुनाओ।

वृद्धावस्था तक
अपनी ताक़त खोने से
वो खोखली हो जाएगी,
उसके दांत बर्फ़ की तरह
पिघल जाएंगे
और वो पोपली हो जाएगी।

तुम फिर भी मुस्कुराते रहे
तो तुमसे बुरी तरह डर जाएगी,
तुम्हारी मौत तुम्हारे सामने ही
मर जाएगी।

बेचैनी

This wonderful poem has been contributed by Miss Anu Oberoi..

हो रही है बेचैनी सी, कुछ तो लिखना है मुझे,
ना हो बात जो ख़ुद पता पर, वो कोई कैसे कहे?

इंतज़ार की आदत जिसको, बरसों से है हो गई
मिलन के सपने बुनने की समझ उसे कैसे मिले?

उजड़े महलों पर ही नाचना, जिसने हरदम सीखा हो
रंगशाला की चमक भला, कैसे उसकी आँख सहे?

जिसने हँसना सीखा है, ज़िन्दग़ी के मज़ाक पर
दे देना मत उसको खुशी, खुशी का वो क्या करे?

Saturday, June 4, 2011

सब कर के भी महंगी पड़ी निकम्माँयी

आज ऐसी दिल में कशिश सी हुई
पता नहीं क्यों जाग कर भी नींद है आई
जरा कोई समझे मेरे इस हालात को
सब कर के भी महंगी पड़ी निकम्माँयी ...
जिंदगी ने मोड़ लिया जीवन में प्यार की घटा छाई
पर क्यों इस प्यार ने दर्द दिया ये समझ ना आई
क्या कमी थी मुझमे यह तो कोई नहीं जनता
पर किसी  को रास ना आई मेरे प्यार की गहराई !!!
मुझे है पता के लोग होते हैं बेवफा
पर फिर भी दिखी सबको मेरी बेवफाई........
चाह मैंने के ला दूँ उसके जीवन में उजियारा...
दूर करूँ अँधेरा और दिखा दू  उसे जीवन सारा
प्यार होता है कठिन ये पाठ आब याद आई,
जरा कोई समझे मेरे इस हालात को
सब कर के भी महंगी पड़ी निकम्माँयी ...

===मन वकील.....

प्रिये माँ के लिए

जितना मैं पढता था,शायद उतना ही वो भी पढ़ती,
मेरी किताबों को वो मुझसे ज्यादा सहज कर रखती,
मेरी कलम, मेरी पढने की मेज़ , उसपर रखी किताबे,
मुझसे ज्यादा उसे नाम याद रहते, संभालती थी किताबे,
मेरी नोट-बुक पर लिखे हर शब्द, वो सदा ध्यान से देखती,
चाहे उसकी समझ से परे रहे हो, लेकिन मेरी लेखनी देखती,
अगर पढ़ते पढ़ते मेरी आँख लग जाती, तो वो जागती रहती,
और जब मैं रात भर जागता ,तब भी वो ही तो जागती रहती,
और मेरी परीक्षा के दिन, मुझसे ज्यादा उसे भयभीत करते थे,
मेरे परीक्षा के नियत दिन रहरह कर, उसे ही भ्रमित करते थे,
वो रात रात भर, मुझे आकर चाय काफी और बिस्कुट की दावत,
वो करती रहती सब तैयारी, बिना थके बिना रुके, बिन अदावात,
अगर गलती से कभी ज्यादा देर तक मैं सोने की कोशिश करता,
वो आकर मुझे जगा देती प्यार से, और मैं फिर से पढना शुरू करता,
मेरे परीक्षा परिणाम को, वो मुझसे ज्यादा खोजती रहती अखबार में,
और मेरे कभी असफल होने को छुपा लेती, अपने प्यार दुलार में,
जितना जितना मैं आगे बढ़ता रहा, शायद उतना वो भी बढती रही,
मेरी सफलता मेरी कमियाबी, उसके ख्वाबों में भी रंग भरती रही,
पर उसे सिर्फ एक ही चाह रही, सिर्फ एक चाह, मेरे ऊँचे मुकाम की,
मेरी कमाई का लालच नहीं था उसके मन में, चिंता रही मेरे काम की,
वो खुदा से बढ़कर थी पर मैं ही समझता रहा उसे नाखुदा की तरह जैसे,
वो मेरी माँ थी, जो मुझे जमीं से आसमान तक ले गयी, ना जाने कैसे .....
=====प्रिये माँ के लिए....मन-वकील

Tuesday, May 31, 2011

बेचैनी

This contribution has been made by Sheena!!!

हो रही है बेचैनी सी, कुछ तो लिखना है मुझे,
ना हो बात जो ख़ुद पता पर, वो कोई कैसे कहे?

इंतज़ार की आदत जिसको, बरसों से है हो गई
मिलन के सपने बुनने की समझ उसे कैसे मिले?

उजड़े महलों पर ही नाचना, जिसने हरदम सीखा हो
रंगशाला की चमक भला, कैसे उसकी आँख सहे?

जिसने हँसना सीखा है, ज़िन्दग़ी के मज़ाक पर
दे देना मत उसको खुशी, खुशी का वो क्या करे?

मौत महास्वावलंबी है

One of the most heart touching poem by Mr Sashwat Bharadwaj

(तुम और तुम्हारी मौत एक ही लग्न में जन्म लेते हैं, पर मौत पहले मर सकती है।)

किसी की उम्र कम
किसी की लंबी है,
और मौत महास्वावलंबी है।
अपना निर्णय स्वयं लेगी,
तुम्हारे चिंता करने से
न तो आएगी
न आने से रुकेगी।
चिंता करके
स्वयं को मत सताओ,
मौत जब भी फोटो खींचना चाहे
मुस्कराओ।
रौनक आ जाती है फोटो में
तुम्हारी दो सैकिंड की मुस्कान से,
ज़िंदगी भर मुस्कुराओगे तो
कभी नहीं जाओगे जान से।

सुनो! तुम्हारे पैदा होते ही
तुम्हारी मौत भी पैदा हो जाती है।
ठीक उसी घड़ी उसी मुहूर्त
उसी लग्न उसी व़क्त
तुमसे कहीं ज़्यादा मज़बूत और सख़्त।
याद रखना मौत मुस्कराती नहीं है,
कोयल की बोली में गाती नहीं है।
वह तो चील-गिद्ध कउओं की तरह
सिर पर मंडराती है
हंसी उसे आती नहीं है।
दांत फाड़े जब वो तुम मुस्कुराओ,
और जब दहाड़े तुम गुनगुनाओ।

वृद्धावस्था तक
अपनी ताक़त खोने से
वो खोखली हो जाएगी,
उसके दांत बर्फ़ की तरह
पिघल जाएंगे
और वो पोपली हो जाएगी।

तुम फिर भी मुस्कुराते रहे
तो तुमसे बुरी तरह डर जाएगी,
तुम्हारी मौत तुम्हारे सामने ही
मर जाएगी।

Monday, May 30, 2011

भूली तुम मेरा प्यार

==भूली तुम मेरा प्यार===
अब कैसे लिखूंगा ? मैं वो रचना,
जिसमे तुम्हारे रूप का होता वर्णन,
अब कौन बनेगा ? मेरी वो प्रेरणा,
जब तुम ही चले गए छोड़ मुझे राह में,
चेतना में अब विराम सा लग गया,
और शून्य जैसे ह्रदय में हो जड़ गया,
कहाँ दौड़ा पाऊंगा मैं मन के वो अश्व,
जो उड़ाते थे तुम से मिलने को नभ में,
जो अपने पंखों को फैला करते थे हमेशा
तुम्हारे माधुर्य रूप लालिमा को अंगीकृत,
एक दीप्त्य्मान ज्योति सी तुम्हारी छवि,
जो मैं प्रतिदिन अपने भीतर गहरी करता,
और उसमे हर पल नए नए रंग था भरता,
ओज़स मेरे भीतर आता था तुमसे बहकर,
तुम्हारे सानिध्य से होती तृप्ति, रह रहकर,
युग बीत जाते कुछ ही पलों में, छूमंतर हो,
मैं और तुम, तुम और मैं, कुछ न अंतर हो,
और फिर बैठ जाता,ऐसे ही कुछ लिखने,
मन हो जाता प्रकाशित, तुम लगती दिखने,
कुछ बंधन बाँध स्वयं को, मैं सिहिर पड़ता,
किसी अहाट को सुन, तुमसे विछोह से डरता,
अब जब तुम चली गयी, ना जाने क्यों और कहाँ,
मैं खोजता फिरता हूँ प्रिये, अब तुम्हे यहाँ वहाँ,
साथ लेकर चली गयी तुम मन के भाव भी मेरे,
उजियारा भी अब रहा नहीं, छाये चहु ओर अंधरे,
लेखनी भी अब मेरी चलने से करती है इंकार,
मैं नहीं भुला तुम्हे प्रिये, किन्तु भूली तुम मेरा प्यार...
=======मन-वकील

Thursday, May 26, 2011

याद तो कर!!!

हम भी ढूंढ कर लाते है तेरे लिए लफ़्ज़ों के गुलाब,
बस तू है के पढ़ती नहीं कभी मेरे दिल की किताब,
जिसने बोला बस तू चल देती है उठकर उसके संग,
हम परेशान हो जाते है देख कर तेरे ये बदले से ढंग,
बयां कर भी नहीं पाते, बस आँखों से उदास हो लेते,
मन के हर रंज को , हम अपने ही आंसुओं से धो लेते,
शिकवा कैसे करें, क्यों कर करे भला,हम अब तुम से,
जुबान पर जड़ दिए है ताले, हो गए है हम गुमसुम से,
रौशनी में भी बैठकर भी अंधेरों में अब हम है अब जीते,
और पीते होंगे गम भुलाने को,हम तुझे याद करने को पीते,
तू अगर है ज़बर, तो हम भी जबरदस्त कम तो नहीं,
तू रूठ भी जाए, तो तेरे जाने कोई अब गम तो नहीं,
अरे मत देख, तू मन-वकील के चेहरे पर छाये हुए गम,
देख स्याह होती अपनी शख्सियत को,अब हरपल हरदम,
कैसे गुजरे थे हम तेरी राहों से ऐसे कभी, तू ये याद तो कर,
बैचेन हम नहीं,जितना तू रोई मेरे जाने पर तू ये याद तो कर,
अरे हम है मन-वकील , सदा करे मन से अपने हर बात,
और चाहे कितने खेल खेलें हमसे, पर हम हार कर भी जीतें,
चाहे कोई डाले हमारे दिल पे जितनी भी लकीरे, सितमगर सा,
हम है जो मुहं से उफ़ तक न करते,कभी उन जख्मों को ना सीते,
======मन-वकील

Wednesday, May 25, 2011

हाय राम अब क्या होगा!

जनता बड़ी अनाड़ी,
पहन रखी है साड़ी,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता शासक चुनती है,
चुन कर मूरख बनती है,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता मंहगाई सहती है,
नव-वधू-सी चुप रहती है,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता जनता को छलती है,
छोटी मछली को बड़ी निगलती है,
हाय राम अब क्या होगा!

नेता कुर्सी पकड़ते हैं,
अफसर खूब अकड़ते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

मूरख आगे बढ़ते हैं,
सज्जन पीछे हटते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

चमचे आँख दिखाते हैं,
अपनी धौंस जमाते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

सत्य छिपा जाता है,
झूठ उमड़ता आता है,
फिर भी हम कहते हैँ,
सत्यमेव जयते!

हाय राम अब क्या होगा!

संसद का पाजामा

Sheena Contributes again
ऋषियों ने, मुनियों ने सोचा,
क्यों न करें हम सम्मेलन,
ऋषियों-मुनियों का बहुमत है,
क्यों न करें फिर आन्दोलन।

मुनि-मण्डल के मंत्री नारद,
संयोजक थे सम्मेलन के ,
दुर्वासा लीडर बन बैठे,
महा उग्र आन्दोलन के।

अध्यक्ष व्यास ने शौनक को,
अपना एडीकांग बनाया,
सबने छाना सरस सोमरस,
शून्य काल में शोर मचाया।

पाराशर-सत्यवती-नन्दन,
व्यास दलित के रक्षक थे,
ब्राह्मण-धीवर की सन्तति वे
शेड्यूल कॉस्ट के अग्रज थे।

आरक्षण का प्रस्ताव रखा,
सूत महामुनि ने हँस कर,
स्वीकार किया ऋषि-मुनियों ने,
बहुमत के चक्कर में फँस कर।

अगला प्रस्ताव किया पारित,
साधु-सन्त को त्याग दिया,
साधू साधक हैं, सिद्ध नहीं,
सन्तों ने सबका अन्त किया।

इस पर सम्मेलन में शोर हुआ,
उग्र प्रचण्ड मचा हंगामा,
देख उसे ढीला हो जाता,
संसद का पाजामा।

Monday, May 23, 2011

"मैं था या तुम थी स्वछंद ?"

"मैं था या तुम थी स्वछंद ?"

कहो मैं था या तुम थी स्वछंद ?
जो विचारों से उन्मुक्त हो बहती,
जिसे बंधन का कोई आभास नहीं,
यौन या मन का कोई भी, और कभी
कोई बंधन नहीं बाँध पाया तुम्हे, कभी,
अरे, हो तुम बहती हुई एक नदी सी,
जब मैं आया था जीवन में तुम्हारे,
बनकर उस बहती नदी के दो किनारे,
कुछ देर रही तक तुम उनमे सिमटी,
बहती मंद मंद सी, रही मुझसे लिपटी,
फिर भावों में आये अचानक तुम्हारे,
कुछ ऐसे तीव्रता के अनोखे से बहु तंत,
और तुम लांग गयी उन्ही किनारों को,
नदी सी नयी भूमि ग्रहण करने, बिना अंत,
मैं भी संग बह गया था,टूटते किनारों सा,
परन्तु रोक न पाया मैं, तुम्हारी वो गति
कैसा रोक पाता, वो तुम्हारी यौन उन्मुक्तता,
वो स्वतंत्र होने को उद्धत सी,व्याकुल मति,
तुमने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा मुझे कभी,
मैं कहाँ से टुटा कहाँ बहा, सुध न ली कभी
रहा नियमों से परे, खुले व्योम सा आचार,
मैं चाहकर भी न कर सका, कभी प्रतिकार,
और अब जब वापिस आयी तुम बहने फिर,
उसी पथ उसी राह से, जैसे होकर पुनः सिधिर,
अब पूछती हो मुझसे, करती क्यों हो द्वन्द,
कहो प्रिये मैं था या तुम थी स्वछंद ?
====मन वकील

Saturday, May 21, 2011

" केवट की प्रतीक्षा"

आज फिर बैठा है गंगाजी के किनारे,
वो केवट, भरकर जल पात्र में अपने,
और राह पर नज़रें बिछाकर एकटक ,
प्रतीक्षा कर रहा है अपने प्रभु राम की ,
जो आज अभी तक नहीं आये तट पर,
कब धोएगा वो केवट, उनके चरण कमल,
और कब ग्रहण करेगा, वो चरणामृत, कब,
कब मुक्त होगा वो इस जन्म पुनर्जन्म के,
अंतहीन चक्र से, ब्रह्म विलीन होने के बाद,
वो स्वरुप,सांवला सलोना,दिव्य अलौकिक,
उसके प्रभु राम का, जो बना देगा फिर ,
उसके जीवन को भँव-सागर से कर पार,
अमृत्व से परिपूर्ण और वायु से हल्का,
जिनके दर्शन से उसने उस त्रेता युग में,
मुक्ति पायी थी, जन्म मरण के खेल से,
फिर ना जाने क्यों ? पुनः श्रापित होकर,
वो केवट, फिर आ पहुंचा, उसी गंगा तीरे ,
अपने हाथो में पात्र में भरा जल लेकर,
मुक्ति की वो गति को प्राप्त करने की आस,
उसे पल पल कर रही है व्याकुलता से युक्त,
और तन की थकान अब नेत्रों में दीखती है,
पर आज वो ऐसे ही खड़ा रहकर, ताकेगा,
उस क्षितिज की और, जहाँ से आयेंगे, वो,
उसके प्रभु राम, किसी व्योम पर सवार हो,
और मुक्ति होने का वरदान देंगे, उसे पुनः,
चरण-कमल धोकर उनके, वो केवट पुनः,
ग्रहण करेगा, चरणामृत और चरण धुरि,
आज सम्पूर्ण विश्व, भी तक रहा है राह,
अपने इष्ट देव की, जो मुक्तिप्रद करेंगे, हमें
यहाँ फैले भ्रष्टाचार, अत्याचार व् व्याभिचार से ......
=======मन-वकील

बेरोज़गारी

Oh MY God..Its Sheena Again to Contribute

राह चलते एक दिन मिल गई हमे बेरोज़गारी बहन
सामने आते ही उनसे मिले हमारे ये दो नयन

नयन मिले तो बात करनी ही पड़ी
हमने पूछा, कैसी हो बड़ी बी?

हमारी बातें सुनकर पहले तो वो शरमाई
थोडा सा इठलाते हुए फिर हमसे फरमाई

क्या बताये बेगम तुम्हें अब अपने दिल का हाल
फैल चूका है चारों तरफ मेरा ही माया जाल

गली गली में होने लगे अब तो मेरे ही चर्चे हैं
रोज ही देखो छपने लगे मेरे नाम के पर्चे हैं

साथ दे रही है आज की शिक्षा और सरकार
मिल रहा है दोनों से ही मुझे ढेर सा प्यार

बन गई हूँ अब तो मैं हर युवा के दिल की धड़कन
फिर भी छुड़ाना चाहते हैं सब मुझसे अपना दामन

कहे देती हूँ……..इतनी जल्दी मैं उनका साथ नहीं छोडूंगी
अभी-अभी तो पकड़ा है…………… ये हाथ नहीं छोडूंगी

इतनी जल्दी साथ नहीं छोडूंगी…….

राजनीति

Thanx Sheena for this wonderful poem on politics!!!

राजनीति के रंग निराले भैया
चलते हैं तीर और भाले भैया

बिन पेंदी के लोटा हैं सब
रोज ही बदले पाले भैया

फितरत की क्या बात करें हम
दिल के हैं सब काले भैया

सुबह शाम उड़ायें छप्पन भोग ये
जनता के लिए महँगी है दालें भैया

चुनाव भर घुमे ये घर-घर पैदल
कार में भी मंत्रीजी को आये छाले भैया

करते हैं सपरिवार विदेश में शॉपिंग
आमजन को है खाने के लाले भैया

संसद को बना दे ये आरोपों का अखाड़ा
विकास की बात पे जुबां पे लगे ताले भैया

रहती है इन्हें बस कुर्सी की ही चिंता
कुर्सी के लिए देश को भी बेच डाले भैया

बोफोर्स, चारा, टेलीकॉम, हवाला
इनके हैं बड़े-बड़े घोटाले भैया

राजनीति के रंग निराले भैया
दिल के हैं सब काले भैया

नन्ही सी कली

Again Sheena has contributed...Look at the lovely poem and look how she has contributed towards the cause

नन्ही सी एक कली हूँ मैं
कल मैं भी तो इक फूल बनूँगी
महका दूंगी दो घर आँगन
खिलकर जब मैं यूँ निखरुंगी
ना कुचलो अपने कदमों से
यूँ मुझको इक फल की चाहत में
फल कहाँ कभी बागबां का हुआ है
गिरता अक्सर गैरों की छत पे
उम्र की ढलती शाम में जब
ना होगा साथ कोई साया
याद आयेगा ये अंश तुम्हारा
जिसको तुमने खुद ही है बुझाया
क्या इन फलों से ही है माली
तेरी इस बगिया की पहचान
गुल भी तो बढ़ाते है खिलकर
तेरी इस गुलिस्तां की शान
बोलो फूल ही ना होंगे तो
तुम फल कहाँ से पाओगे
बेटी जो ना होगी किसी की
तो बहु कहाँ से लाओगे?
तो बहु कहाँ से लाओगे??????

वासना की गुड़िया

Once again its Sheena!!!

कम लगता है मुझको
वो आतंकवाद
जो बम के धमाकों से
ख़त्म कर देता है जिंदगी
एक ही बार में ।
नारी जीवन में तो पल पल
छाया रहता है आतंक
और घुटती है, मरती है
वो हर पल, हर रोज ।


पानठेलों की चुभती निगाहें
आँखों से टपकती वासना
भीड़ में टटोलते कुछ हाथ
जो अक्सर दिल को
छलनी कर देते हैं ।
और इससे भी जी नहीं भरता
तो करके शरीर का बलात्कार
छोड़ देते हैं जिन्दा
घुटकर मरने
उम्र भर के लिए ।


इन दरिंदों के लिए
बच्ची, युवती, प्रौढ़ में
कोई फर्क नहीं ।
उनके लिए तो हैं ये
सिर्फ और सिर्फ
वासना की गुड़िया ।


क्या कहते हो तुम
नारी स्वतंत्र हो गई ?
पर तुम्हीं बताओ
उन चुभती नजरों से
लालची आँखों से
मैले-कुचैले हाथों से
कब होगी आज़ाद ?

क्या नारी होना अपराध है ?
या सुन्दर नारी एक अपराधी ?

आई अब जनता की बारी

Sheena's 4th Contribution towards this Blog!!!

आई अब जनता की बारी*
अकड़ निकल गई उनकी सारी।
ऐसे विनम्र हो गए हैं वे,
जैसे पकड़ी गई हो चोरी।

माँगों पाँच वर्ष का हिसाब।
देना होगा उनको जवाब
जीतकर हो गए थे गुम,
अब सामने आए हैं जनाब।।

आया है मौका अब आपका।
काम देखो प्रत्याशियों का।
विवेक की तुला पर तोलो,
असली चेहरा जानो इनका।।

सोच-समझकर बटना दबाना।
गलती हुई तो पड़ेगा पछताना।
न आना तुम बहकावे में,
जो योग्य हो उसी को चुनना।।

चिकनी-चुपड़ी बातों पर
कीजिए मत विश्*वास।
अपने हित को साधने
ये बहुत जगाएँगे आस।
हम हैं जनता, ये हैं सेवक,
हम नहीं हैं इनके दास।
अपने सेवक को चुनने का
है अधिकार हमारे पास।।

व्यर्थ न जाए आपका
ये बेशकीमती वोट।
जहाँ चाहते आप हैं
वहीं लगाना चोट।।

मकसद हो जाए पूरा
लक्ष्य भी हो हासिल।
सोच-विचार कर दीजिए
अपना बहुमूल्य वोट।।

बेटा नमक हराम बाप को गरियाता है

The 3rd Poem by Sheena!!


बेटा नमक हराम बाप को गरियाता है,
नया जमाना देख समय भी शरमाता है।
कभी-कभी तो पटक-पटक कर सोटियाता है,
मां जब बीच-बचाव करे तो झोंटियाता है।
डांट पिलाती मेहरारू तब हिहियाता है,
कान पकड़ता मुर्गा बनता मिमियाता है।
बाहर बना शरीफ फुटानी बतियाता है,
बेटा नमक हराम बाप को गरियाता है।
बुड्ढा मट्ठा-दूध मांगते घबराता है,
गुजर किया क्यों मांड-भात से पछताता है।
दाँत नहीं सूखी रोटी को चुभलाता है,
भिखमंगों की भांति द्वार पर रिरियाता है।
क्या होगा भगवान कलेजा थर्राता है।
बेटा नमक हराम बाप को गरियाता है।

चाय खाना!!

Another wonder ful Poem contributed by Sheena!!!

गम को कम करने की शायद
मुफीद जगह है चाय खाना,
जहाँ लेन-देन के मामले तय होते हैं,
बनती चाय महज बहाना.
चाय की चुस्की लेकर अटका कार्य ,
पुन: सरकने लगता है.
सुस्त पड़ा फ़ाइल फिर एक बार ,
टेबुल पर टहलने लगता है.
नफरत,वियोग की कडवाहट और मिठास
जब आपस में घुल मिल जाते हैं,
चुस्की की मधुर ध्वनि सुन
हम खुद में खो जाते हैं.
चाय कभी फैशन जरूर थी,
बन गयी आज हमारी जरूरत,
हाकिम हो या फिर चपरासी,
हर किसी को है पीने की आदत.
मुंह अँधेरे,बिछावन पर ही
अब चाय परोसी जाती है,
पतिव्रता भी पति देवता को,

चाय से ही रिझाती है.
आधुनिकता की पहचान यही है,
घर-घर में यह मीठा जहर,
इसके बिना हम असभ्य कहलाते,
और जीना सचमुच है दूभर.

गूगल बाबा की जय हो!!!

This wonderful Poem is contributed by Sheena....

जय हो गूगल बाबा की जय हो
जो पूछो झट से बतलाते

खुद में पूरा ब्रमांड बसाते
डक्टर हो या इंजीनियर
सबको हैं यह राह दिखाते
सबसे ज्यादा युवा वर्ग को भाते
क्योंकि इनके बिषयों को
झट से ये जो हल कर जाते
जय हो गूगल बाबा की जय हो .
गूगल बाबा के रूप भी अन्नत
इनका जीमेल सबका चहेता
युवाओं में ऑरकुट का बोलता
ऑफिसर का ओनलाइन खाता
लेखक और कवि को ब्लॉग्स खूब भाता
फोटो एलबम के लिए है पिकासा
हिंदी को इंगलिश में लिखना
या हो कोई और भाषा
गूगल का है अपना
ये ट्रांसलेसन कहलाता
गूगल बाबा के हैं और भी कई रूप
कंप्यूटर नहीं हो मोबाइल में भी रहते
उलझन को क्षण में खत्म करते
घर बैठे अपने “अर्थ” से
दुनिया की ये सैर कराते
नई नई तकनीकों को
अपने पास हैं लाते
अब तो फ्री में गूगल बाबा
मोबाइल पर बात भी कराते
जय हो गूगल बाबा की जय हो........

Friday, May 20, 2011

सच

सच, जो नित मुझे डरा देता है,
कैसे बोल पाऊंगा में , इसे कभी,
यदि बोल दूंगा तो, निश्चित ही,
कुछ बंधू होंगे विमुख मुझसे,
और कुछ मित्र विचलित से,
कोई तो अधिकता की सीमा ,
लांगकर, उगल देगा एकाएक,
मेरे बारे में , अपना वो सच ,
जो उसने भी छुपाया होगा,
भीतर मन के अँधेरे कोने में,
बिलकुल मेरी तरह, जैसे में,
मन के उस अँधेरे कोने में रोज़,
झांकता तो हूँ, पर उसके कपाट,
बंद रखता भय से, कही कोई,
खोल ना दे मेरे भीतर की परते,
शायद तभी सच पड़ा रहता ,
वहां खामोश, चिंतन से युक्त हो,
कभी कभी निकल भी पड़ता ,
मेरे नेत्रों से अश्रु धरा के संग,
परन्तु फिर में यही कोशिश,
करता रहता, चेतन मन से,
कमबख्त छुपा ही रहे, यह,
सदैव, काहे को बहार आकर,
मित्रों से शत्रुता, रिश्तों में कटुता,
सभी अपने काहे जाने वालों से,
बैर मोल ले, जीवन को दूभर,
बनाने में कोई कसर न छोड़े,
अतः मैं इसे छुपाये रखता,
सदैव झूठ के कई मन बोझ से,
मुझे नहीं कहलाना, वीर महान,
इसके जिव्या पर आते ही, तो,
मैं समाज से बहिष्कृत होकर,
वीरगति को ही ना प्राप्त हो जाऊं,
समझौता कर लिया है मैंने, अब,
अपने उस मरे हुए आत्मबोध से,
जो कुछ भी हो जाए, मैं सदैव,
ढांपे रखूँगा, अपनी हकीकत को,
और मन-वकील सच नहीं बोलेगा ,
कभी भी और कहीं भी,किसी को नहीं......
======मन वकील

कौन है बड़ा!!!

आँखों में बस भूख थी उसके,
और तन में चिथड़ों के वसन,
दोनों हाथ फैलाएं सबके आगे,
सड़क के किनारे वो था यूँ खड़ा ,
मैं जो निकला उससे बचकर,
जब अपनी रहा था मैं टटोल,
एक सिक्के को मुठी में थामे,
मन में मेरे विचार यह आ पड़ा..
क्या दूं ? यह सिक्का इसके मैं,
या फिर इसे जब में ही रहने दूँ ,
फिर अचानक उसकी और देखा,
और वो मुझे देख कर यूँ हंस पड़ा,
मैं विचारों से आ गिरा अचानक,
इस चेतना की पथरीली धरती पर,
उसकी मुस्कान ने मुझसे जैसे पूछा,
बता, मैं भिखारी या तू ? कौन है बड़ा ?
========मन-वकील

Thursday, May 19, 2011

कर्मठ होने का अर्थ


अरे कर्मठ होने का अर्थ मन-वकील शायद अभी समझ न पाया...
सिर्फ मस्त-मौला बन के जिया, और मित्रों के सदा ही काम आया..
जिसने बोले दो बोल प्रेम से, उसी के दर पे बैठ इसने दिन बिताया..
लिखता रहा सिर्फ मन और दिल के बाते, जुबाँ पे कभी उफ़ न लाया..
हसरतें थी मन-वकील, उड़ने की आसमां पे, तो पैरों से जमीं फिसल गयी,
गिरते उठते सीखे सिर्फ दुनिया के कायदे,न जाने कैसे खुशियाँ निकल गयी,
आँखों में नमी आयी, पर कभी किसी खुदा के बन्दे पे न कोई इलज़ाम आया...
अरे जहाँ मिलता रहा इसे दोस्तों का प्यार, वहां इस जहाँ का ही नाम आया.. 


========Man-Vakil

Wednesday, May 18, 2011

हौंसला -इ-जिगर

तू मेरे जिगर से बहता लहू ना देख ,
तू मेरा हौंसला -इ-जिगर तो देख,
मेरी आँखों के खामोश नमी ना देख,
तू इनमे भरी वो आग तपिश को देख..
अरे तेरे ना मिलने पे, ख़ाक नहीं होंगे,
तू मेरे फनाह होने का सफ़र को देख,
अरे सितमगर मेरी रहमत को देख,
गर्दिशों में उड़ते मेरे बयारों को देख,
अरे हम है मन-वकील, मन की करे,
हाथों में नहीं तलवार , फिर भी अकेले,
आँधियों से लड़े,तूफानों से जाकर भिड़े,
गर तेरे दर पे ठहर दो पल किये जो आराम,
तुने न जाने क्यूँ समझ लिया हमें गुलाम,
अरे हसिनायों के पर तो हम , रोज़ बा रोज़,
कतरते है मेरी जान, ऐसे हमारे हुनर को देख,
नज़रों से गरूर के परदे हटा,फिर तू मेरी जान,
मेरे जाने के बाद तेरे इस आशियाँ का हश्र देख .
तू मेरे जिगर से बहता लहू ना देख ,
तू मेरा हौंसला -इ-जिगर तो देख,....
... मन-वकील

Tuesday, May 17, 2011

नेता जा रहे होटल ताज!!!!

हे भगवान् कब तुम धरती पर पधारोगे
इन सत्ता के मारों को कब मुक्ति दिलाओगे
सत्ता के मद में खोये हैं ये बन्दे,हो गए हैं अंधे सारे
घुस ,चोरी और लुट से हैं इनके बसेरो में उजियारे
बच्चे भूके हैं,मगर हैं नहीं इनको होश
होती है नफ्रात खुदसे जब देखता हूँ विदेशी धन कोष
भारत का है धन वहां सड रहा
मगर बच्चो के तन पर कपडा नहीं यहाँ
माएं पानी को हैं मोहताज, BPL कार्ड नहीं है आज
इन परेशानियों का शबाब कब समझेंगे ये सरताज
लगता है कभी कभी अन्धो का है यह राज
बच्चे भूक से बिलख रहे,और नेता जा रहे होटल ताज!!!!

========मन वकील

नाम है बदनाम !!!

Man-vakil ki kalam se ek aur sundar poem


नाम है बदनाम फिर भी तू मस्त रहे जा
दुनिया की फिकर से दूर तू अपने में चले चला जा
ना सोच के क्या दिया  है दुनिया ने तुझे
जो मिला है उसी से संतुस्ट हुए चला जा
दिल से है तू मासूम यह प्रमाण इन्हें दिखला जा
जो करते हैं तुझे बदनाम उन्हें प्रेम परिभाषा सिखा जा
त्याग दिया है तुने मोह माया को ये इन्हें समझा जा
नाम है बदनाम फिर भी तू मस्त रहे जा..

ना कभी मैं मूक रहा


कुछ तो गुण होंगे तुममे , जो तुम मुझको भातें हो...
और कुछ दोष दिखाकर मुख से, कभी तो डराते हो,,,,
मित्र हो या फिर सखा तुम, कभी प्रिये बन रुलाते हो...
जीवन के अकेले कोने में आकर कभी युहीं भरमाते हो...

 मन की वो आवाज़ वहीँ है, मित्रों,ना कभी मैं मूक रहा,
अवसादों से चाहे घिरा हुआ था, फिर भी मैं अचूक रहा...
यादों के वो गहरे साये, घिर घिर आते मन की बस्ती में,
कभी ख़ामोशी सी छा जाती, कभी ख़ुशी ठहरे हस्ती में,
चिंताओं के अवशेष रहें, कभी भावों से भरी, मैं भूख रहा
मन की वो आवाज़ वहीँ है, मित्रों,ना कभी मैं मूक रहा,

======मन-वकील

कह दे मुझको तुमसे प्यार नही

जनाजा रोककर वो मेरे से इस अन्दाज़ मे बोले, गली छोड्ने को कही थी हमने तुमने दुनियां छोड दी।

आशिक जलाए नही द्फनाय़े जाते हैं, कब्र खोद कर देखो इन्तज़ार करते पाय़ जाते हैं ।


आता नही हमको राहें वफा दामन बचाना, तुम्ही पर जान दे देगें एक दिन आज़मा लेना।


जो गिर गया उसे और क्यों गिराते हो, जलाकर आशियाना उसी की राख उडाते हो ।


गुज़री है रात आधी सब लोग सो रहे हैं, यहां हम अकेले वैठे तेरी याद मे रो रहे हैं ।


खुदा जाने मोहबत का क्या दस्तूर होता है, जिसे मै दिल से चाह्ती हूँ वही मुझ से दूर होता है।


गुज़रे है आज इश्क के उस मुकाम से, नफरत सी हो गयी है मोहबत के नाम से ।


जिस पेड के पत्ते होते है वही पत्ते सूखते है, जिस दिल मे मोहबत होती है वही दिल टूटते है ।


जब खामोशी होती है नज़र से काम होता है, ऐसे माहौल का शायद मोहबत नाम होता है।


तुम क्या मिले कि फैले हुए गम सिमट गये, सदियों के फासले थे जो लम्हो मे कट गये।


वो फूल जिस पर ज्यादा निखार होते हैं, किसी के दस्त हवस का शिकार होते हैं ।


पी लिया करते हैं जीने की तमना मे कभी, डगमगाना भी जरुरी है सम्भलने के लिये ।


मै जिस के हाथ मे एक फूल दे कर आया था, उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश मे है ।


आपको मुबारक हो इशरते ज़माने की, हमने पाई है दौलत दर्द के ज़माने की।


कब तक तू तरसेगी तरसाएगी मुझ को, एक बार कह दे मुझको तुमसे प्यार नही । 


This poem is written by Mr. Alone 

दुनिया में---मुसाफिर गुम गया

वो जब आया इस दुनिया में, बहुत शोर मचाता रहा,
शोर शोर करते करते, अपना आगमन बतलाता रहा,
माँ की गोद से, पिता के कंधे पर चढ़कर, हर रोज़,
अपने पाँव पर वो धीरे धीरे एकदिन चल निकला,
शुरू करने अपनी जीवन के सफ़र का , एक दूसरा ही दौर,
उसके पहले कदम धरा पर रखने से भी हुआ वैसा ही शोर,
उसके नन्हे नन्हे क़दमों की ताल भी, अब कुछ बदलने लगी,
तेजी आयी जुबान सी उसके क़दमों में, जिन्दगी मचलने लगी,
पहले अकेला रहा वो, अब हमकदम हमसफ़र मिलने लगे,
कुछ छूटे मोड़ पर ही , कुछ उसके साथ साथ चलने लगे,
नए विचारों से उसने नए जीवन को दिए उसने आयाम,
रुक न पाया वो कभी इस भागदौड़ में , करने को विश्राम,
अब उसके क़दमों की ताल के संग, कुछ कदम अपने से मिले,
जो अलग हो अपनी राह को निकले, कल तक जो साथ थे चले,
धीरे धीरे उसके क़दमों की भी गति , लगी कुछ अपने आप घटने,
वो अलग सा होने लगा उस राह से, लगा था कुछ वो भी थकने,
एकदिन ना जाने क्यों वो, एकाएक ही था उसका सफ़र थम गया,
चार कंधो पर चला वो अग्नि भस्म होने, वो मुसाफिर
गुम गया...
..............मन-वकील

जन्म-भूमि को गाली न दो

दो गाली सबको , लेकिन अपनी जन्म-भूमि को न दो,
अगर दोष होगा , तो हम भूमि भोग्तायों में ही शायद होगा,
अरे उस भारत भूमि में कहाँ दोष , जो पावन सरस भूमि है,
जिसमे जन्मे है देव, ऋषि और महानतम पुरुख निरालें ,
दो गाली सबको , लेकिन अपनी जन्म-भूमि को न दो,
अगर दोष होगा , तो हमारे बोये बीजों में ही शायद होगा,
अरे उस भारत भूमि में कहाँ दोष, जो कण कण उपजाऊ है,
जिसमे बसते है हर वर्ण गुण और आकार के वन और जीव,
दो गाली सबको , लेकिन अपनी जन्म-भूमि को न दो,
अगर दोष है, तो हमारे आज के नेता गण में ही शायद होगा,
अरे उस भारत भूमि में कहाँ दोष , जो निति सिद्धान्तकों भरी हुई है,
जहाँ प्रतिपादित हुए है गौतम, नानक, राम और चाणक्य के निति नियम,
अगर गुलाम आज हम है, तो दोषी स्वयं आज का जन-मानस है,
जो जकड गया है जाने अनजाने , विदेशी आडम्बरों के मकड़ी जाल में,
--------------मन-वकील

अभी अधूरी है जिन्दगी

युहीं सोचते सोचते ऐ दोस्त , कभी कभी कट जाती है यह जिन्दगी,
कभी काली घटा सी लगती, कभी खुले आसमान सी है यह जिन्दगी,
उजालों से निकल कभी कभी गहरे अंधेरों में उतर जाती है यह जिन्दगी,
कभी हाथों में होती लकीरों सी, और कभी फिसल सी जाती है यह जिन्दगी,
रोते रोते आंसुओं के संग बहकर, मेरी आँखों में उतर आती है यह जिन्दगी,
कभी महबूबा के गर्म बोसों सी, कभी अपनों के तानो सी चुभती है यह जिन्दगी,
कभी सुन कर महबूब की बेवफाई के अफ़साने, चट्टान सी बन जाती है यह जिन्दगी,
और कभी मिलन की आस में गाती है तराने, और मधुर संगीत से हो जाती है यह जिन्दगी...
---------------मन-वकील

अछूती....

वो मजबूर थी शायद , जो गिर गयी उस कर्महीन गर्त में,
पेट की क्षुधा ने ही धकेल दिया था उसे इस परिस्थिति में,
अपने बनकर जो हाथ उसे चाहे अनचाहे छूने की कोशिश करते,
आज वो हाथ उसे छुहन से कांपने लगते , ना जाने क्यों?
क्या वो हीनता थी जो वो देखने लगे थे उसमे एकाएक..,
या फिर उसके तन को छूने का मूल्य चुकाने का भय...
पर वो उन लोगो के लिए आज अछूत बन चुकी थी,
वही लोग जो कल तक उसे अछूता नहीं रहने देतें थे...

दुनिया के बदलते रंग

कुछ तो बात होगी तुझमे , जो सारी दुनिया सुधर गयी,
पर ना जाने क्यों ? सब सुधर गए, सिर्फ हम ना सुधरे,
असर था ये तुझे पाने का, या फिर तुम्हे पाकर
खो  देने का,
शायद तेरी हसरत में सुधर गए , वो सब काली फितरत वाले,
और हम युहीं बैठे रह गए, गम भी ना मना पाए तुझे खोने का कभी,
चंद आंसुओं से डूबे हुए पढते रहे, तेरे जिन्दगी से चले जाने पर फातिहा,
बस हम देखते रहे युहीं तेरे जाने पर , इस बेरंग दुनिया के बदलते रंगों को.........
-----------मन-वकील

दोस्त की याद में

चन्द बातें तो याद होंगी तुम्हे मेरी ,
कुछ पल भी समेटे होंगे आँखों में,
बिता हुआ कल अब होगा दामन में,
किसी गाँठ की तरह बंधा सा हुआ,
ख्वाब चाहे ना आते हो कभी मेरे,
पर तुम्हारे काले सायों में हूँ मैं,
बुरे अतीत की कालिमा संजोये,
आज भी डर जाती होगी अचानक,
तुम देख किसी राह पर चलते चलते,
ठिठक कर फेर लेती होगी अपना मुहं,
या फिर बदल देती होगी राह अपनी....
कुछ तो बात है तुममे ऐ मेरे दोस्त
जो मजबूर कर देती है हमें तेरे पास आने को,
वो बारीकियां सभी कुछ ब्याँ करने की तेरे,
वो आग से खेलते मुद्दे उठाना , यूँ अक्सर ,
वो कुछ अपनों की मदद करने का हौंसला,
कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ पे इसे ख़तम,
तेरी शख्सियत का कोई सानी भी तो नहीं.....
-----------मन-वकील ...

प्लास्टिक की बोतल

मैं हमेशा सा रहा हूँ उसके लिए,
एक प्लास्टिक की बोतल को तरह,
जिसमे अगर पानी भरा हुआ हो,
और साथ में सील बंद मुहर हो,
तो मुझे झट से खरीद लेती थी,
और अपने सीने से लगा कर,
दोनों हाथों में समेट चलती ,
और ज्यों ज्यों पानी घटता,
मेरे प्रति उसका लगाव भी,
कम होता जाता धीरे धीरे,
और बोतल में बची आखिरी बूंद
उसकी दिलचस्पी को शून्य कर देती,
और वो उस बूँद के रसावादन को,
कर देती एक दम नज़रंदाज़ ऐसे,
जैसे कभी उस प्लास्टिक की बोतल से,
उसका कोई मोह या सरोकार ही न हो,
और झट से उसके वोही हाथ,
एकाएक अचानक फेंक देते उसे,
कही बिना देखी राह पर बेदर्दी से ,
कोई भाव या पीड़ा का अहसास भी,
कभी भी नहीं आया उसके चेहरे पर,
बस सिर्फ एक ही भाव रहा हमेशा,
उसके उस चेहरे पर जो झलकता था,
उस प्लास्टिक की बोतल को फेंकते वक्त,
मुक्त होने का भाव तनिक हर्ष से युक्त,
और पीछे मुड़कर भी नहीं देखा उसने,
कभी उस प्लास्टिक की बोतल को ,
जो कुचली जाती , आने जाने वाले,
कई क़दमों से और पहियों के तले,
कई कई बार और लगातार, हर बार,
और मैं यही सोचता कुचलते वक्त,
अब शायद उसे मेरी जरुरत नहीं रही ....
----------मन-वकील

दुराचारियों को भी नाश

हे पार्थ , आओ जुल्म का करो तुम अंत, चला दो चक्र श्रीकिशन जी के तेज़ का,
मिटा दो धरती से पापियों बलात्कारियों को मिले न सुख उन्हें किसी सेज का,
जो मासूमों की अस्मिता से खेल करें और संग विच्छेद करे,नन्हे पावन संबंधो को,
आओ उस पापी की वध करें , छीन भिन्न अंग विहंग करे, सबक दे ऐसे दुर्बंधों को,
उनका जो साथ दे , पापी का हाथ बने, ऐसे दुराचारियों को भी नाश करे आज हम,
रुक न जाए कभी, रोध्ररूप धर के बस , ऐसे समाज का भी विनाश करे आज हम,
जो प्रतिहारी और प्रतिकार भी करे हमारा प्रतिरोध, दे उनको भी आज हम रोंद के रख,
न्याय की प्रत्रिक्षा नहीं, कोई अनुरोध, विनती नहीं , न्याय स्वयं बन जाये कोंध के हम,
ऐसे दुराचारी को केवल मृत्यु का भास् हो उससे कोई परिहास या हास न कर सके यहाँ,
ऐसे समाज का निर्माण हो, देविस्वरूप कन्या का मान सम्मान हो, प्रेम मिले हर जगह ////
==========मन वकील

भटकाव

भटकाव प्रिये , है जीवन का ही एक दूसरा नाम ,
जो न भटका कभी, वो शायद रहा निर्जीव सा सदा,
बहते जल, छितराते बादल , सभी रहते भटकते,
गति मंद हो या हो तेज , भटकाव रहता जीवन में,
भटकाव का अन्तः नहीं होता कभी मंजिल पर,
केवल वितृष्णा या तृष्णा का जाल सा रहता भीतर,
जो मजबूर कर देता सदैव , औड़ने को नए नए मुखौटें,
केवल आस के भरने , कुछ खाली हो चुके मनसा बर्तन,
एक साथी की तलाश , हमेशा अग्रसित करती रहती मुझे,
भटकाव भरी राह पर चलने को , बदल बदल ये मुखौटें,
अंधेरों के दौर आते, और बह जाते उजालों के शोर में,
और ये उजालें भी बदल जाते अक्सर, नए अंधेरों में,
बिखराव होता यदि मन का, पर मैं ना टूटता कभी भी,
केवल बहता रहता उसी समय के अविरल दरिया में ,
और पकडे हुए केवल अपनी उम्मीदों की डोर ह्रदय से ,
धोखे , विरह, मिलन या अवसाद , सब वाष्पित होते हुए,
छूते रहते मुझे एक के बाद एक, अक्सर , घटना क्रम में,
और मैं कभी भी मंद नहीं पड़ता , अपने उस भटकाव में.....
-....मन-वकील