कुछ शब्दों में समेटना चाहता हूँ मैं सारा नीला आकाश,
फिर भी ना जाने क्यूँ, पैरों तले जमीन खिसका जाती है ,
कभी चहुँ अगर रोकना, बहते मन के भावों कि नदी को,
फिर भी ना जाने कैसे, रेत सी हाथों से जिन्दगी फिसल जाती है
नहीं हूँ आकाश मैं, पर कुछ अंश उसका भी समेटे हूँ,
नहीं हूँ जल का अभिप्राय, पर कुछ अंजुली भी समेटे हूँ ,
वायु सा नहीं हूँ तेज़ मैं, पर कुछ उड़ते भाव समेटे हूँ ,
धरा सा विशाल नहीं रहा मैं, पर कुछ कण भी समेटे हूँ,
ओज़स शायद भरा हो कुछ भीतर मेरे, जो प्रकाशित हूँ मैं,
पावक में देह से राख बदल जाऊँगा, कुछ पञ्चभूत सा हूँ मैं|||
-मन वकील
फिर भी ना जाने क्यूँ, पैरों तले जमीन खिसका जाती है ,
कभी चहुँ अगर रोकना, बहते मन के भावों कि नदी को,
फिर भी ना जाने कैसे, रेत सी हाथों से जिन्दगी फिसल जाती है
नहीं हूँ आकाश मैं, पर कुछ अंश उसका भी समेटे हूँ,
नहीं हूँ जल का अभिप्राय, पर कुछ अंजुली भी समेटे हूँ ,
वायु सा नहीं हूँ तेज़ मैं, पर कुछ उड़ते भाव समेटे हूँ ,
धरा सा विशाल नहीं रहा मैं, पर कुछ कण भी समेटे हूँ,
ओज़स शायद भरा हो कुछ भीतर मेरे, जो प्रकाशित हूँ मैं,
पावक में देह से राख बदल जाऊँगा, कुछ पञ्चभूत सा हूँ मैं|||
-मन वकील