तुझे प्राप्त करने की , हे प्रिये सोनी,
फलीभूत हो गयी है श्रापों से निरंतर,
हमारी प्रेम गाथा,विचित्र सी धूसरित,
मेरी भूल थी, जो स्मरण न रख पाया ,
कभी तुम्हारे उस देव-तुली अभिरूप को,
न मान सका, टूटे ह्रदय से , जान भूझकर,
तुम्हारे एक निष्काषित देव-कन्या होने को,
और इंगित भी ना कर पाया कभी मन से,
तुम्हारे इस नगर-वधु होने के कारण को,
और आपेक्षा सदैव उपेक्षा को धकेलती रही,
निरंतर प्रत्यंतर, अनजानी सी एक आस में,
मैं मन वकील नित बुनता रहा न जाने क्यों?
स्वपन , तुम्हारे संग चन्द्र-मास बिताने के,
नेत्रों में , जैसे तुम अश्रुओं से अधिक थी बसी,
और मैं , करता रहा तुम्हारी हर अक्षम्य सी ,
भूल को, किस सुध में बेसुध हो क्षमा,हर-बार,
व्याकुलता की तीव्रता , आन बसी थी कहाँ से,
मेरे भीतर, जो अग्नि से तेज़ तपित कर देती,
मेरे ह्रदय में तुम्हारे प्रति, उस कुलषित मोह को,
और तुम सदैव अंगीकृत करती रही , वासनित हो,
अनजान पुरुषों के कामुकता-जनित आलिंगन को,
और मैं प्रतीक्षा-रत हो, पलकें बिछाएं खड़ा रहा,
तुम्हारे लिए चिंतन-रत, एक साधक सा बना रहा ,
तुम लगी रहती , औरों के चित भरमाने मध् सी,
और मुझे, सोनी ने जल से भी तृप्त नहीं दिया कभी ,
मुख पर बोल भी हो गए, एक सुखी नदी के समान,
जो तुम्हे कहने को तो होते आतुर, और बह न पाते,
तुम्हारे प्रणय प्रसंगों ने, भर दिए थे केवल अवसाद,
जो रह रह कर आते ज्वार भाटा के लहरों की भांति,
मेरे मन के अथाह सागर में , केवल शांति भंग करने,
रक्तिम हो चुकी नेत्रों के पुतलियाँ , बार बार रुध्रण से ,
और वाणी साथ छोड़ गयी थी , तुम्हारे जैसे , क्रंदन से,
परन्तु मन की एक आस , दूर एक शिवालय की लौ सी,
जलती रही भीतर, इसी आस में, सोनी तुम फिर आओगी,
लौट कर ,इस भूलोक में , केवल मेरे लिए और मेरे पास....
=========मन-वकील
आज आपसे दिल की बात....
ReplyDeleteसोनी के प्रेम में कुछ उद्ध्गार प्रकट किये थे....वो सोनी जो लोगों को यौन संबंधो का आमंत्रण देती और उन्हें उकसाती की वो यौन अंगों और संबंधों पर कुछ कहे..उसकी बेबाकी सब को बरबस खींचती , मन-वकील भी उसी रौह में बहता हुआ ना जाने कब सोनी से प्रेम करने लगा...अब मन वकील को लगता कि सोनी ये अश्लील या यौन शब्दों के उन्मुक्त भाष्य या काव्य , उसके भीतर छुपी किसी वेदना को बहलाने के लिए है...शायद सोनी कि पीड़ा का बदला या दमन , इस तरह से निकल रही है..और यही सोच मन वकील को सोनी के निकट ले आयी..यह कोई तरस या सहारा देने कि प्रवृति या लालसा नहीं थी अपितु प्रेम था विशुद्ध प्रेम..जिस सोनी के कभी देखा नहीं मन वकील ने , न कभी आशा कि वो उसे मिलेगी कभी..परन्तु प्रेमवश उसे महसूस करता है मन वकील अपने भीतर ..जहाँ वो सोनी कही से आन बसी है...प्रभु से यही चिंतन और मनन रहता है.. कि सोनी जहाँ भी रहें सकुशल रही और दुखविहींन हो सुखसहित रहे...
आपका मन वकील
खूब सही कहा मित्र आपने......
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